Pages

Followers

Tuesday, April 23, 2013

kaisa shikvaa

कैसा शिकवा

अपनों से मोहब्बत,अपनों से शिकायत ,
गैरों से भला , कहाँ गिला शिकवा ।
टूटे हैं वही  सपने जो देखे थे मैंने ,
जो देखे ही नहीं उनसे  कैसा शिकवा ।
ख्वाहिश थी समेटूं रिश्तों को माला में,
रिश्ता ही नहीं जिससे ,फिर कैसा शिकवा ।

डॉ अ कीर्तिवर्धन
8 2 6 5 8 2 1 8 0 0

No comments:

Post a Comment