कैसा शिकवा
अपनों से मोहब्बत,अपनों से शिकायत ,
गैरों से भला , कहाँ गिला शिकवा ।
टूटे हैं वही सपने जो देखे थे मैंने ,
जो देखे ही नहीं उनसे कैसा शिकवा ।
ख्वाहिश थी समेटूं रिश्तों को माला में,
रिश्ता ही नहीं जिससे ,फिर कैसा शिकवा ।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
8 2 6 5 8 2 1 8 0 0
अपनों से मोहब्बत,अपनों से शिकायत ,
गैरों से भला , कहाँ गिला शिकवा ।
टूटे हैं वही सपने जो देखे थे मैंने ,
जो देखे ही नहीं उनसे कैसा शिकवा ।
ख्वाहिश थी समेटूं रिश्तों को माला में,
रिश्ता ही नहीं जिससे ,फिर कैसा शिकवा ।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
8 2 6 5 8 2 1 8 0 0
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