आज गौरया ( चिड़िया ) दिवस है ,एक सच्ची रचना ,जिसके साथ मेरा बचपन जुडा रहा ........
चिड़िया
तुम कहाँ विलुप्त हो गई हो ?
बचपन से
मैं देखा करता था तुम्हे
अपने घर आँगन में
और देखता था
तुम्हारा आना
अपने बच्चों के साथ
फिर नहाना
पानी के उसी बर्तन में
जो रखा जाता था
तुम्हारे पीने के लिए ।
जिसे भरना पड़ता था
हमें बार बार
अपनी माँ अथवा पिताजी के कहने से
" थोड़ा पानी और डाल दो ,चिड़िया कैसे पी पाएगी "
और मैं पुन : भर देता था
लबालब किनारों तक
उस बर्तन को ।
मैं देखता था
नहाने के बाद
तुम्हारा दाना खाना
अपने छोटे बच्चों को
अपनी चोंच से
उनकी ही चोंच में खिलाना ।
नन्हे बच्चों का
दाना न मिलाने पर
चीं -चीं चिल्लाना
और तुम्हारा
दौड़ कर तुरंत आना ।
मैंने देखा है
तुममे से ही कुछ
चिड़िया
बैठ जाती थी
मेरे पिता के कंधे
व सर पर
जब डालते थे वे
प्रात:काल बाजरा
तुम्हारे खाने के लिए ।
उस समय
हमें जलन होती थी
कि क्यों तुम
हमारे पास नहीं आती
आखिर पानी तो
हम ही भरते हैं
तुम्हारे पीने ,नहाने
और खेलने के लिए ।
चिड़िया
मुझे याद है
बचपन के वह दिन
मेरे शहर "शामली" की वह छतें
जहां प्रतिदिन
प्रात:काल का कुछ समय
बीत जाता था
तुम्हारे साथ खेलकर
और सोचता था मैं
मैं भी उड़ सकूँ
नील गगन में
अपनी दोनों बाहों को फैलाकर
और अक्सर
कोशिश भी किया करता था
तुम्हे देखकर ।
मुझे यह भी याद है
एक बार गर्मी की छुट्टियों में
सूझी थी हमें शरारत
तुम्हे पकड़ने की ।
टोकरी के नीचे
छोटी लकड़ी खड़ी कर
उसमे रस्सी को बांधकर
बैठे थे एक किनारे
और जब आई थी तुम
दाना खाने
टोकरी के नीचे
हमने रस्सी खींच ली थी
और तुम
टोकरी में कैद थी ।
तुम्हारी दर्दीली आवाज़
जो मुक्ति के लिए थी
मेरी माता जी ने सुनी थी
और रसोई से ही चिल्लाई
"देख ज़रा ,कहीं चिडिया को
बिल्ली ने तो नहीं पकड़ लिया "
मैं दर गया था
तुम्हे आज़ाद कर दिया था ।
फिर तुम नहीं आई
कितने ही दिन ।
मैं रोज देखता
करता तुम्हारा इंतज़ार
और मांगता
दिल ही दिल में माफ़ी
अपनी गलती की ।
शायद तुमने सुन ली थी
मेरे दिल की आवाज़
और वापस आ गई थी
पंद्रह दिन के बाद
वहीँ नहाने,पानी पीने
तथा दाना खाने
मेरी छत के ऊपर ।
चिड़िया
आज तुम कहाँ विलुप्त हो गई हो
क्या नहीं आता रास
तुम्हे शहर का वातावरण
अथवा
नहीं मिलते
मेरे पिता से नियमपूर्वक दाना डालने वाले या
बना दिया स्वार्थी मनुष्य ने
तुम्हे विलुप्त प्राय:
संरक्षित प्रजाति
और समते दिया है
चिड़ियाघरों तक ?
इन सभी प्रशनों में
मैं उलझा हूँ ।
हाँ
कभी कभी देख लेता हूँ
किसी गाँव में
जब किसी चिड़िया को
मन प्रसन्न हो जाता है
बचपन में लौट जाता हूँ ।
चिड़िया
मैं चाहता हूँ खेलना
तुम्हारे संग
उसी तरह पानी भरना
तुम्हे नहाते देखना
तुम्हारा खेलना
दाना चुगना
आज़ादी से उड़ना
नहाने के बाद
अपने बदन को हिला कर सुखाना
अपने चोंच से
अपने परों को संवारना
फिर
अपने बच्चों को सजाना
कभी तार पर ,कभी मुंडेर पर
कभी छत पर तो कभी
चारपाई पर फैली मेरी किताबों पर
बैठ जाना
सब
फिर से देखना चाहता हूँ
इसीलिए
मैं अक्सर
शहर से निकलकर खेत,खलिहान
बगीचे की तरफ चला जाता हूँ ।
डॉ अ कीर्तिवर्धन 8265821800
चिड़िया
तुम कहाँ विलुप्त हो गई हो ?
बचपन से
मैं देखा करता था तुम्हे
अपने घर आँगन में
और देखता था
तुम्हारा आना
अपने बच्चों के साथ
फिर नहाना
पानी के उसी बर्तन में
जो रखा जाता था
तुम्हारे पीने के लिए ।
जिसे भरना पड़ता था
हमें बार बार
अपनी माँ अथवा पिताजी के कहने से
" थोड़ा पानी और डाल दो ,चिड़िया कैसे पी पाएगी "
और मैं पुन : भर देता था
लबालब किनारों तक
उस बर्तन को ।
मैं देखता था
नहाने के बाद
तुम्हारा दाना खाना
अपने छोटे बच्चों को
अपनी चोंच से
उनकी ही चोंच में खिलाना ।
नन्हे बच्चों का
दाना न मिलाने पर
चीं -चीं चिल्लाना
और तुम्हारा
दौड़ कर तुरंत आना ।
मैंने देखा है
तुममे से ही कुछ
चिड़िया
बैठ जाती थी
मेरे पिता के कंधे
व सर पर
जब डालते थे वे
प्रात:काल बाजरा
तुम्हारे खाने के लिए ।
उस समय
हमें जलन होती थी
कि क्यों तुम
हमारे पास नहीं आती
आखिर पानी तो
हम ही भरते हैं
तुम्हारे पीने ,नहाने
और खेलने के लिए ।
चिड़िया
मुझे याद है
बचपन के वह दिन
मेरे शहर "शामली" की वह छतें
जहां प्रतिदिन
प्रात:काल का कुछ समय
बीत जाता था
तुम्हारे साथ खेलकर
और सोचता था मैं
मैं भी उड़ सकूँ
नील गगन में
अपनी दोनों बाहों को फैलाकर
और अक्सर
कोशिश भी किया करता था
तुम्हे देखकर ।
मुझे यह भी याद है
एक बार गर्मी की छुट्टियों में
सूझी थी हमें शरारत
तुम्हे पकड़ने की ।
टोकरी के नीचे
छोटी लकड़ी खड़ी कर
उसमे रस्सी को बांधकर
बैठे थे एक किनारे
और जब आई थी तुम
दाना खाने
टोकरी के नीचे
हमने रस्सी खींच ली थी
और तुम
टोकरी में कैद थी ।
तुम्हारी दर्दीली आवाज़
जो मुक्ति के लिए थी
मेरी माता जी ने सुनी थी
और रसोई से ही चिल्लाई
"देख ज़रा ,कहीं चिडिया को
बिल्ली ने तो नहीं पकड़ लिया "
मैं दर गया था
तुम्हे आज़ाद कर दिया था ।
फिर तुम नहीं आई
कितने ही दिन ।
मैं रोज देखता
करता तुम्हारा इंतज़ार
और मांगता
दिल ही दिल में माफ़ी
अपनी गलती की ।
शायद तुमने सुन ली थी
मेरे दिल की आवाज़
और वापस आ गई थी
पंद्रह दिन के बाद
वहीँ नहाने,पानी पीने
तथा दाना खाने
मेरी छत के ऊपर ।
चिड़िया
आज तुम कहाँ विलुप्त हो गई हो
क्या नहीं आता रास
तुम्हे शहर का वातावरण
अथवा
नहीं मिलते
मेरे पिता से नियमपूर्वक दाना डालने वाले या
बना दिया स्वार्थी मनुष्य ने
तुम्हे विलुप्त प्राय:
संरक्षित प्रजाति
और समते दिया है
चिड़ियाघरों तक ?
इन सभी प्रशनों में
मैं उलझा हूँ ।
हाँ
कभी कभी देख लेता हूँ
किसी गाँव में
जब किसी चिड़िया को
मन प्रसन्न हो जाता है
बचपन में लौट जाता हूँ ।
चिड़िया
मैं चाहता हूँ खेलना
तुम्हारे संग
उसी तरह पानी भरना
तुम्हे नहाते देखना
तुम्हारा खेलना
दाना चुगना
आज़ादी से उड़ना
नहाने के बाद
अपने बदन को हिला कर सुखाना
अपने चोंच से
अपने परों को संवारना
फिर
अपने बच्चों को सजाना
कभी तार पर ,कभी मुंडेर पर
कभी छत पर तो कभी
चारपाई पर फैली मेरी किताबों पर
बैठ जाना
सब
फिर से देखना चाहता हूँ
इसीलिए
मैं अक्सर
शहर से निकलकर खेत,खलिहान
बगीचे की तरफ चला जाता हूँ ।
डॉ अ कीर्तिवर्धन 8265821800
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