सिमटने लगे हैं घर अब दादी के दौर के,
बिखरने लगे हैं लोग जब गाँव छोड़ के |
हो गया बड़ा मेरा गाँव,सरहद के छोर से,
बनने लगे मकां , जब घरों को तोड़ के |
सिमट गई नजदीकियां ,मिटने के कगार तक,
देखे हैं जब से रिश्ते, बस पैसों से जोड़ के |
नहीं आता कोई काम ,मुश्किल में आजकल,
अब जीने लगे हैं लोग,स्वार्थ से नाता जोड़ के |
नैतिकता का देखिये कितना हुआ पतन,
औलाद भी चलने लगी ,अब मुहं मोड़ के |
डॉ अ कीर्तिवर्धन
8265821800
बिखरने लगे हैं लोग जब गाँव छोड़ के |
हो गया बड़ा मेरा गाँव,सरहद के छोर से,
बनने लगे मकां , जब घरों को तोड़ के |
सिमट गई नजदीकियां ,मिटने के कगार तक,
देखे हैं जब से रिश्ते, बस पैसों से जोड़ के |
नहीं आता कोई काम ,मुश्किल में आजकल,
अब जीने लगे हैं लोग,स्वार्थ से नाता जोड़ के |
नैतिकता का देखिये कितना हुआ पतन,
औलाद भी चलने लगी ,अब मुहं मोड़ के |
डॉ अ कीर्तिवर्धन
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