भारतीय साहित्य के दो आकर ग्रंथ हैं, महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण और महर्षि वेद व्यास कृत महाभारत। रामायण आदि ग्रंथ है क्योंकि माना जाता है कि लौकिक साहित्य के सर्जन का प्रारंभ इसी ग्रंथ से हुआ। इससे पूर्व के साहित्य को आर्श या वैदिक साहित्य कहते हैं। व्याघ्र के द्वारा कामक्रीड़ा रत क्रोंच पक्षी के जोड़े में से नर को अपने बाण से विद्ध किए जाने पर क्रोंची के विलाप को सुनकर तमसा नदी के तट पर गए महर्षि वाल्मीकि का हृदय द्रवित हो गया और उनका शोक एक श्लोक के रूप में फूट पड़ा।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शास्वती: समा:
यत्का्रेंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ।
यह लौकिक साहित्य का प्रथम श्लोक है और इसके बाद नारद जी की आज्ञा से महर्षि ने चौबीस हजार श्लोकात्मक रामायण महाकाव्य की रचना की ।
कालक्रम के अनुसार महाभारत दूसरा महाकाव्य है। जिसे कृष्णद्वैपायन व्यास द्वारा लिखा गया। यह अठारह पर्वों का एक लाख श्लोक से युक्त विराट काव्य है । विद्वानों का मत है कि व्यास जी ने सर्वप्रथम जय नामक ग्रंथ लिखा जिसमें आठ हजार आठ सौ श्लोक थे। उन्होंने यह कथा अपने पुत्र तथा शिष्य सुकदेव को सुनाई। तत्पश्चात् उनके शिष्य वैशम्पायन ने यह कथा जनमेजय को सुनायी। तब इसका आकार चौबीस हजार श्लोकों का हो गया और जब नैमिषारण्य में सौति ने अठासी हजार ऋषियों को यह कथा सुनायी तब आख्यानों और उपाख्यानों सहित इसका आकार एक लाख श्लोक का हो गया। भारतीय परंपरा इसका समर्थन नहीं करती। आठ हजार आठ सौ श्लोक वस्तुत: कूट श्लोक हैं जिसका अर्थ गहन है और जिनके बारे में स्वयं वेद व्यास ने कहा है कि इनका अर्थ मैं जानता हूं शुक जानता है और शायद संजय जानता है ।
अठारह पर्व के इस विशालकाय ग्रंथ में अनेक आख्यानों और उपाख्यानों सहित कौरव और पाण्डवों की मुख्य कथा वर्णित है। इसके उत्तर भारतीय संस्करण में आज 84642 श्लोक और दाक्षिणात्य संस्करण में ………………हजार श्लोक हैं। यदि हरिवंशपुराण को भी मिला दिया जाए जिसे महाभारत का खिलपर्व कहते हैं तो श्लोकों की संख्या 1,00,000 तक पहुंच जाती है।
महाभारत में उल्लेख है कि व्यास जी ने सौ पर्व लिखे थे किंतु उन्हें सूतवंशी लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा ने अठारह पर्वों में व्यवस्थित कर दिया।
एतत् पर्वशतं पूर्ण व्यासेनोक्तं महात्मना । 83॥
महाभारत को इतिहास कहा गया है ।
इतिहास प्रदीपेन मोहावरण घातिना । 87
इसे इसके महत्व के कारण और इसमें निहित ज्ञान के कारण पंचम वेद कहा गया है। और एक स्थान पर तो सौति ने इसे उपनिषद भी कहा है।
अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनौऽब्रवीत ॥253॥
इस संपूर्ण मुख्य कथा का महाद्रुम दुर्योधन का क्रोध कहा जाता है। और अल्प बुद्धि प्राय: धृतराष्ट्र इसके मूल कहे गए हैं।
दुर्योधनो मन्युमयो महादु्रम:
मूलं राजा धृतराष्ट्रौऽमनीषी । 110॥
संपूर्ण महाभारत कथा के मूल में देखा जाए तो जिस प्रकार वेदों में केवल परब्रह्म की ही कीर्तन है इस पंचम वेद में भी तात्विक दृष्टि से भगवान वासुदेव की ही संकेत है। स्वयं सौति ने कहा है कि
भगवान वासुदेवश्च कर्त्यते ऽत्र सनातन: ॥256॥
इस महान ग्रंथ में भीष्म जी भी आदि से अंत तक रहते हैं । अनुशासन पर्व तक तो वे सशरीर रहते हैं । भीष्म का प्रथम उल्लेख महाभारत में आदि पर्व के प्रथम अध्याय में श्लोक क्रमांक 94 पर हुआ है।
मातुर्नियोगाद धर्मात्मा गांगेयस्य च धीमत: ॥ 94/1 आदि पर्व ।
व्यास जी ने जो इस ग्रंथ के बारे में कहा है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के विषय में जो इस ग्रंथ में वर्णित है। वही अन्यत्र मिलेगा और जो इसमें नहीं है वह कहीं नहीं है। उनकी यह गर्वोक्ति नहीं है। यह यथार्थ है। और तो और भारत का सर्वोत्तम दार्शनिक ग्रंथ श्रीमद्भगवत गीता भी इसी महाभारत के भीष्म पर्व का एक भाग है। अत: उनका कथन -
धर्मे ह्यर्थे कामे मोक्षे च भरतर्षभ
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित ।
महाभारत का रचना काल
1. कन्नौज के राजा जयचंद (12वी शताब्दी) के राजकवि श्रीहर्ष ने अपने महाकाव्य ”नैषधीय चरितम्” में महाभारत और व्यास दोनों का उल्लेख किया है।
व्यासो महाभारत सर्गयोग्य:।
2. सातवीं सदी में महाकवि माघ द्वारा लिखे गए महाकाव्य ”शिशुपाल वध” की कथा महाभारत पर ही आधारित है।
3. महाराज हर्ष के (640 ईस्वी) के राजकवि बाणभट्ट भी महाभारत से परिचित हैं और इसका उल्लेख अपनी सुप्रसिद्ध कृति ”कादम्बरी” में इस प्रकार करते हैं -
पाण्डु धार्त राष्ट्राणां कुलकृत खेदम्।
4. पांचवीं शताब्दी में भारवि द्वारा लिखा गया महाकाव्य ”किरातार्जुनीयम” जिसमें अर्जुन द्वारा व्यासजी के परामर्श से पाषुपतास्त्र की प्राप्ति हेतु तपस्या और शिवजी के प्रसाद से अस्त्र प्राप्ति वर्णित है, महाभारतकथा पर ही आधारित है।
5. महाभाष्यकार पतंजलि का काल 150 ईस्वी माना जाता है। उन्होंने भी अपने ग्रंथ में महाभारत का उल्लेख किया है।
6. आष्वलायन कृत गृहृसूत्र (3.4.4) में महाभारत कथा का हमें सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। यह ग्रंथ 450 ईसा पूर्व लिखा गया था।
7. स्वयं पाणिनि ने युधिष्ठिर, भीम, विदुर, आदि शब्दों की व्युत्पत्ति बताई है और यह भी कहा है कि महाभारत शब्द में ”महा” शब्द में उदात्त स्वर है यहां महाभारत एक ग्रंथ के रूप में वर्णित है। पाणिनि का समय लगभग 600 वर्ष ईसवी पूर्व का है।
8. महाभारत में कई स्थलों पर बौद्ध धर्म के सिद्धांतों का उल्लेख है। जैसे विदुर कहते हैं
यष्च शून्य मुपासते ।
इससे कुछ विद्वान मानते हैं कि महाभारत भगवान बुद्ध के बाद का है। क्योंकि भगवान बुद्ध महाभारत का उल्लेख नहीं करते। अत: इस ग्रंथ की रचना 485 ईसापूर्व के बाद हुई होगी।
महाभारत का युद्ध कब हुआ होगा यह निश्चित करने के लिए सौभाग्य से हमें ज्योतिष की सहायता मिल जाती है। महाभारत में व्यास जी ने बड़ी कौशल से कुछ ज्यार्तिविज्ञान से संबधित तथ्य दे दिए हैं जिनके आधार पर पश्चगामी काल गणना करके सुनिश्चित तिथि ज्ञात की जा सकती है । ऐसे संकेत उद्योग पर्व में 143वें अध्याय में है जहां कर्ण श्रीकृष्ण से अपने जन्म का वृत्तांत सुनकर भी बंधुओं से मिल जाने के उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर देता है और श्रीकृष्ण से कहता है कि मैं भावी अमंगलकारी अपशकुनों को देख रहा हूं जिनसे आभास होता है कि क्षत्रियों का महाविनाश होगा। ये अपशकुन इस प्रकार वर्णित हैं -
प्राजापत्यं हि नक्षत्रं ग्रहस्तीक्ष्णो महाद्युति: ।
शनैष्चर: पीडयति पीडयन् प्राणिनोऽधिकम् ॥ 8/143॥
( महातेजस्वी एवं तीक्ष्ण ग्रह शनैश्चर प्रजापति संबंधी रोहिणी नक्षत्र को पीड़ित करते हुए जगत के प्राणियों को अधिक पीड़ा दे रहा है।)
कृत्वा चांगारको वक्रं ज्येष्ठायां मधुसूदन ।
अनुराधां प्रार्थयते मैत्रं संगमयन्निव ॥9/143॥
(मधूसूदन मंगल ग्रह ज्येष्ठा के निकट से वक्र गति का आश्रय ले अनुराधा नक्षत्र पर आना चाहता है जो राज्येस्थ राजा के मित्र मंडल का विनाश सा सूचित कर रहें हैं।)
सोमस्य लक्ष्मा व्यापृत्रं राहुरर्कमुपैति ।
दिवष्चोलका पतन्त्येता सनिर्घाता: सकम्पना: ॥
(चंद्रमा का कलंक मिट सा गया है। राहु सूर्य के समीप जा रहा
है आकाश से उल्काएं गिर रहीं है । )
नूनं महदृभयं कृष्ण कुरूणां समुपस्थितम् ।
विषेषेण हि वार्ष्णेय चित्रां पीडयते ग्रह ॥10/143॥
(निश्चय ही कौरवों पर महान भय उपस्थित हुआ है विशेषत: महापात नामक ग्रह चित्रा को पीड़ा दे रहा है जो राजाओं के विनाश का सूचक है । )
कुछ ऐसे ही अमंगल स्वयं व्यास जी ने धृतराष्ट्र को सावधान करते हुए वर्णित किए हैं जहां वे भीष्म पर्व के द्वितीय अध्याय में कहते हैं -
या चैषा विश्रुता राजंस्त्रैलोक्ये साधुसम्मता ।
अरून्धती तयाप्येष वशिष्ठ: पृष्ठत: कृत: ॥31/2॥
(राजन जो अरून्धती तीनों श्लोकों में पतिव्रतों की मुकुटमणि के रूप में प्रसिद्ध है उन्होंने वशिष्ठ को अपने पीछे कर दिया है । )
रोहिणी पीडयन्नेष स्थितो राजन्षनैष्चर: ।
व्यापृतं लक्ष्म सोमस्य भविष्यति महद भयम् ॥32॥
(अर्थात शनैश्चर रोहिणी नक्षत्र को पीड़ित कर रहा है और चंद्रमा का कलंक मिट गया है अत: महान भय उपस्थित है । )
आगे भीष्म पर्व के ही तीसरे अध्याय में वे फिर विस्तार से ग्रहों की स्थिति का वर्णन करते हैं जो अशुभ फलप्रद है ।
श्वतो ग्रहस्तथा चित्रां समतिक्रम्य तिष्ठति ।
अपायं हि विशेषेण कुरूणां तत्र पश्यति ॥।12 ॥
(केतु ग्रह चित्रा नक्षत्र का अतिक्रमण करके स्वाति पर स्थित हो रहा है अत: कुरूओं की विशेष क्षति होगी । )
धूमकेतुर्महाघोर: पुष्यं चाक्रम्यं तिष्ठति ।
सेनयोरषिवं घोरं करिष्यति महाग्रह: ॥13/3॥
( पुष्य नक्षत्र पर भयंकर धूमकेतु स्थित है जो दोनों सेनाओं के लिए घोर अमंगलकारी है । )
मघास्वंगारको वक्र: श्रवणे च बृहस्पति ।
भगं नक्षत्र माक्रम्य सूर्यपुत्रेण पीडयते ॥14॥
(मंगल वक्र हो मघा नक्षत्र पर स्थित है। बृहस्पति श्रवण नक्षत्र पर है। सूर्य पुत्र शनि पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र पर पहुंच कर उसे पीड़ा दे रहा है।)
शुक्र: प्रोष्ठपदे पूर्वे समारूहय विरोचते ।
उत्तरे तु परिक्रम्य सहित: समुदीक्षते ॥15/3॥
( शुक्र ग्रह पूर्व भाद्रपद पर आरूढ़ होकर प्रकाशित हो रहा है।)
श्वेतो ग्रह प्रज्ज्वलित: सधूम इव पावक: ।
ऐन्द्रं तेजस्वि नक्षत्रं ज्येष्ठामाक्रम्य तिष्ठति ॥16/3॥
(केतु धूमयुक्त अग्नि के समान प्रज्ज्वलित है। वह तेजस्वी ज्येष्ठा नक्षत्र पर स्थित है।)
धु्रवं प्रज्ज्वलितो घोर मपसव्यं प्रवर्तते।
रोहिणीं पीडयत्येवमुमौ च शषिभास्करौ।
चित्रा स्वात्यन्तरे चैव विष्ठित: परूषग्रह: ॥17/3॥
(चित्रा व स्वाति के बीच में स्थित हुआ कू्रर ग्रह राहू वक्रीय होकर रोहिणी व चंद्रमा और सूर्य को पीड़ा पहुंचाता है। वह अत्यंत प्रज्ज्वलित होकर धु्रव के बाईं ओर जा रहा है जो घोर अनिष्ट का सूचक है। )
वक्रानु वक्रं कृत्वा च श्रवणं पावकप्रभ: ।
ब्रह्म राषिं समाकृत्य लोहितांगो व्यवस्थित: ॥18/3॥
(अग्नि के समान कांतिमान मंगल ग्रह जिसकी स्थिति मघा में बताई गई है बारंबार वक्र होकर ब्रह्म राशि अर्थात बृहस्पति युक्त नक्षत्र श्रवण को पूर्ण रूप से आवृत्त करके स्थित है। )
संवत्सरस्थायिनौ च ग्रहौ प्रज्ज्वलितावुभौ ।
विषाखाया: समीपस्थौ बृहस्पति शनैश्चरौ ॥27/3॥
(वर्षपर्यंत एक राशि पर रहने वाले दो प्रकाश मान बृहस्पति और शनैश्चर तिर्यकवेध के द्वारा विशाखा नक्षत्र के समीप आए हैं। )
चन्द्रादित्यावुभौ ग्रस्ता वे कान्हा हि त्रयोदशीम् ।
अपर्वणि ग्रहं यातौ प्रजासंक्षयमिच्छत: ॥24/3॥
(इस पक्ष में दो तिथियों के क्षय होने के कारण एक ही दिन त्रियोदशी तिथि को बिना पर्व के ही राहु ने चंद्रमा और सूर्य दोनों को ग्रस लिया है। )
ग्रहों और नक्षत्रों की इन स्थितियों के आधार पर श्रीयुत बी.एन. नरहरि आचार ने भौतिक शास्त्र के मान्य विद्वान हैं और वर्तमान में अमेरिका के टेनेसी प्रांत के मेम्फिस विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर हैं उच्च क्षमता कम्प्यूटर के द्वारा प्लानेटेरियम सॉफ्टवेयर का उपयोग करते हुए लगातार चार वर्ष के प्रयास के बाद महाभारत युद्ध की वास्तविक तिथि खोज निकाली है।
उन्होंने विशेषत: तीन सूत्रों को पकड़ा है। प्रथम शनि ग्रह की रोहिणी नक्षत्र में स्थिति, यह सुविधा के लिए है क्योंकि शनि ग्रह तीस वर्ष में राशि चक्र की एक परिक्रमा करता है । द्वितीय सूत्र लिया है मंगल ग्रह का वक्रीय होकर मघा नक्षत्र पर स्थित होना तथा बृहस्पति का श्रवण नक्षत्र पर स्थित होना। तीसरा सूत्र लिया है तेरह दिन के अंदर ही सूर्य और चंद्रग्रहण दोनों का हो जाना। नक्षत्रों की इन विशेष स्थितियों के आधार पर उन्होंने महाभारत की विशिष्ट घटनाओं की तिथि निर्णय इस प्रकार किया है।
क्रमांक
| घटनाक्रम |
नक्षत्र
|
अंग्रेजी तिथि
|
1
| श्रीकृष्ण का शांति प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर जाना । |
रेवती
| 26 सितंबर 3067 बीसी |
2
| शांति प्रस्ताव में विफल होकर लौटते हुए श्री कृष्ण व कर्ण का संवाद | 8 अक्टूबर 3067बीसी | |
3
| महाभारत में वर्णित चंद्रग्रहण |
कार्तिक पूर्णिमा
| 29 सितंबर 3067 बीसी |
4
| महाभारत में वर्णित सूर्यग्रहण |
अमावस्या
| 14 अक्टूबर 3067 बीसी |
5
| महाभारत युद्ध का आरंभ | 22 नबंबर 3067 बीसी | |
6
| युद्ध का चौदहवां दिन घटोत्कच का वध | 8 दिसम्बर 3067 बीसी | |
7
| युद्ध का अंतिम दिन, बलराम का आगमन, | 12 दिसंबर 3067 बीसी | |
8
| भीष्म का स्वर्गारोहण , माघ शुक्ल अष्टमी |
रोहिणी नक्षत्र
| 17 जनवरी 3066 बीसी |
9
| मकर संक्रांति |
शुक्ल पक्ष पंचमी
| 13 जनवरी 3066 बीसी |
इतनी सटीक जानकारी इससे पूर्व कभी नहीं मिली थी । उनका यह लेख THE HINDU RENAISSANCE पत्रिका के वर्ष 2006 के जनवरी अंक में प्रकाशित हुआ है।
आचार महोदय के इसी लेख से ज्ञात होता है कि इससे पूर्व भी ज्योतिष के आधार पर महाभारत युद्ध का काल निर्धारण कुछ अन्य विद्वानों द्वारा भी किया गया है जैसे- श्री साठे द्वारा Search for the year of Bharat War, Navbharati Publications, Hyderabad 1983 तथा श्री राघवन द्वारा The Date of the Mahabharata War, Srirangam Printers, Srinivasnagar, 1969 इस दिशा में श्री राघवन के प्रयास अधिक परिपूर्ण हैं क्योंकि उन्होंने ग्रह और नक्षत्रों की कई स्थितियों का उपयोग अपनी गणना में किया है और इस गणना के अनुसार भी महाभारत का होना 3000 ई.पू. में सिद्ध होता है और भारतीय परंपरा भी यही कहती है कि महाभारत को हुए पांच हजार दो सौ वर्ष बीत चुके हैं श्री कामथ द्वारा संपादित पुस्तक The Date of Mahabharat War Based on the Aastronomical Data Mythic Society Bangalore, 2004 भी इसी दिशा में नवीन प्रयास है
आर्यभट्ट ने (5 वीं शताब्दी ए.डी) कलियुग का आरंभ 18 फरवरी 3102 बीसी से माना है। भारतीय काल गणना के अनुसार इस वर्ष अर्थात 2010 में कलियुग के 5111 वर्ष बीत चुके हैं। और 5112 वां युगाब्ध चल रहा है। महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने 36 वर्ष राज्य किया और कृष्ण भी 36 वर्ष बाद ही यादवों का विनाश देखकर गोलोक चले गए। और कलियुग प्रारंभ हो गया। इस प्रकार महाभारत युद्ध 5111+36= 5147 वर्ष पूर्व होना भारतीय परंपरा से प्राप्त है। ज्योतिषी गणना से प्राप्त समय 3067+2010= 5077 आता है। अत: केवल 5147-5077=70 वर्ष का ही अंतर पड़ता है जो 5000 वर्ष की लंबी अवधि को देखते हुए नगण्य है। यह बड़े संतोष की बात है कि आज हम जान पाए हैं कि आज से 5076 वर्ष पूर्व भीष्म इस पृथ्वी पर थे।
यह तिथि भारतीय परंपरा से पूर्णत: मेल खाती है। जिसके अनुसार वर्तमान में 5112 वां कलियुगाब्ध चल रहा है। जो श्रीकृष्ण के गोलोक प्रस्थान से प्रारंभ होता है। और वे लगभग महाभारत युध्द के छत्तीस वर्ष बाद अपने धाम गए।
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