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Sunday, September 22, 2013

hamaare bujurg

         हमारे बुजुर्ग
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बुजुर्ग हमारे घर के रक्षक , बुजुर्ग संस्कृति के संरक्षक ,
दया धर्म का पाठ पढ़ाते , बिछुडों से भी मेल कराते |
प्रीत ,धर्म और ज्ञान की बातें , संस्कारों के बीज जमाते ,
नन्हे-नन्हे कोमल मन पर , ममता का संसार लुटाते |
अनुभवों का बने खज़ाना , हर संकट का हल बतलाते,
पड़े मुसीबत जब भी तुम पर, चुटकी में वो राह दिखाते |
आज समाज में बुजुर्गों की स्थिति चिंताजनक होती जा रही है | माता पिता को उनके ही बनाये ,सजाए आशियाने से जुदा कर देना अथवा वृद्धावस्था  में उनको अकेला छोड़ देना या वृद्ध आश्रम में धकेल देने की घटनाएँ निरंतर समाज में दिखाई पड़ती हैं | आखिर वह क्या कारण हैं जहां बच्चों को अपने माता -पिता या बुजुर्गों के साथ रहने में कठिनाइयाँ आती हैं और वे असह्य हो जाते हैं ? मैंने सभी समस्याओं को गंभीरता से देखने और समझने का प्रयास किया है  लेकिन आगे बढ़ने से पूर्व मेरी इन पंक्तियों को भी ध्यान पूर्वक पढ़ें:-
जग में हमने कर उजियारा ,मन काला रंग डाला |
तुलसी चौरे पर दिया जला माँ, सबकी सुख चिंता करती थी,
हमने जगह की कमी बता कर तुलसी चौरा तुड़वा डाला |
माँ की पीड़ा समझ ना पाए,जीते जी मरवा डाला
जग में हमने कर उजियारा ,मन काला रंग डाला |
नैतिकता का पाठ पढ़ाकर, मात-पिता ने हमको पाला;
अनैतिकता कर्म सीखकर ,हमने घर से बाहर निकाला |
अर्थ तंत्र प्रधान बना है, रिश्तों को बिसरा डाला ,
जग में हमने कर उजियारा ,मन काला रंग डाला |
बुढापा न तो कोई रोग है और न ही अभिशाप है | बुढापे के साथ हमारे अनुभवों का खज़ाना भी बढ़ता है | अब यह हम पर निर्भर है की अनुभवों की इस अमूल्य निधि को उपयोग में लायें अथवा निरर्थक पडा रहने दें | मेरे विचार में जब भौतिकवाद अपनी जड़ें जमा रहा है, पाश्चात्य संस्कृति हमारी सभ्यता को प्रभावित कर रही है , हमारे बुजुर्गों को भी थोड़ा सा आगे बढ़ कर इस सत्य को समझना चाहिए | उन्हें चाहिए की स्वयं को निष्क्रिय न समझें
क्यों जिऊँ मैं बेबशी का दामन पकड़कर
ईश्वर ने जिंदगी नियामत बख्शी है |
बुजुर्गों को चाहिए कि बच्चों की दिनचर्या व अपने कार्यक्रमों में सामंजस्य स्थापित करें, लड़की व बहु के फर्क को ख़त्म करें , स्वयं को व्यस्त रखें , अनावश्यक रूप से टीका- टिप्पणी करने से बचें | छोटे बच्चों को ज्ञान, धर्म, संस्कृति ,सभ्यता, माता-पिता की आज्ञा मानना  जैसे उपदेशों के साथ साथ सर्वप्रथम समय व शिक्षा के महत्त्व को बताएं |
जिंदगी हर इंसान की किस्तों में गुजरती है
कभी बचपन, जवानी ,कभी बुढापे में कटती है |
जो लोग बुढापे को अभिशाप समझते हैं ,उन्हें मैं यह स्पष्ट कर दूँ  
"जिसे मौत से डर लगता है ,वह जिंदगी जी ही नहीं सकता | "
श्रृष्टि का नियम है " जो आया है ,वह जाएगा |" बस अंतर इतना है  -हमें ईश्वर द्वारा जो कार्य सौंपा गया है क्या हमने उसे पूरा कर लिया है ? यदि हाँ तो डर किस बात का , जिस बच्चे का काम अधुरा होता है वह ही कक्षा में जाने से डरता है | हमारे शास्त्रों में चार वर्णों की परिकल्पना की गई है | चतुर्थ वर्ण में तीर्थाटन , मोहमाया का त्याग , ईश्वर प्राप्ति की कामना , नियम, संयम , जप-तप की अवधारणा , समाज सेवा तथा आगामी पीढ़ी को दायित्व देने की व्यस्था की गई है | वर्तमान हालत के मद्देनजर बुजुर्गों को अपने अहं में कुछ विनम्रता लानी चाहिए | पारिवारिक दायित्वों का बोझ संतान को उठाने दें | उनका यथा संभव सहयोग व मार्ग दर्शन करें तथा उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा दें |

अब मैं बात करता हूँ उन नौजवानों की जो स्वयं को खुदा मान बैठे हैं , जो भूल गए हैं - बुढापा प्रकृति का अटल नियम है | जो आज युवा है , कल अवश्य वृद्ध होगा | जो आचरण आज हम अपने बुजुर्गों से करेंगे , कल वही आचरण  हमारे बच्चे हमारे साथ करेंगे , बल्कि उससे बुरा ही करेंगे | इससे भी पहले एक बात और समझ लें ---
" जैसा खाओगे अन्न , वैसा होगा मन "
चोरी, रिश्वत , भ्रष्टाचार या अवैध तरीके से कमाए धन से आप भौतिक सुविधाएं तो खरीद सकते हैं मगर संस्कार नहीं | इस पैसे से मंदिर का निर्माण तो हो सकता है परन्तु श्रद्धा भक्ति नहीं पा सकते | मंदिर में जाकर आपको शान्ति नहीं मिलेगी अपितु मैंने भगवान के मंदिर का निर्माण कराया , इसका अहं बढेगा |
यही तो है " मैं " का झूठा अहंकार |
आज के युवा को पहले यह विचारना होगा की वह सुखी होना चाहता है या संपन्न ? सम्पन्नता का सीधा सम्बन्ध भौतिक सुखों से है और सुख का तात्पर्य मन की शान्ति से है | सच्चे सुख का अर्थ है ईश्वर द्वारा प्रद्दत जीवन व सभी उपलब्धियों के लिए उसका आभार प्रकट करना तथा ईमानदारी व मेहनत से आगे बढ़ने के प्रयास करना | मैंने अक्सर देखा है गरीब आदमी कुछ हद तक अभावों के बाद भी सुखी रहता है ----
जहाँ रुखी रोटी खाकर भी हँसता बचपन है ,
परिवार जनों की सेवा कर ,स्त्री का गौरव बढ़ता है |
जहाँ सबके सुख-दुःख एक दूजे के होते हैं
जहाँ भूखे रहकर भी संस्कृति को ढोते हैं |
जी हाँ ,  वही  सुख है |
दोस्तों, आज के दौर में छोटे परिवार ही अधिकतर होने लगे हैं | ऐसे में बच्चों के नौकरी या व्यापर के कारण दूर चले जाने के कारण भी बुजुर्ग उपेक्षित महसूस करते हैं | इन परिस्थितियों में जरुरी है की हम उनके निरंतर संपर्क में रहें , समय-समय पर आयोजित उत्सव में इकट्ठे होकर आनंद पूर्वक समय व्यतीत करें , जरुरत पड़ने पर उनकी सेवा के लिए तत्पर रहें | एक कहावत है "रुपैया -पैसा बहुत कुछ है मगर सब कुछ नहीं |" मैंने ऊपर भी बताया है कि आप पैसे से बिस्तर खरीद सकते हैं परन्तु नींद नहीं | नींद के लिए मन की शान्ति चाहिए और शांति के लिए ईश्वर की कृपा एवं उसका आभार मानने की आदत चाहिए | और जिस दिन आपने यह सब कर लिया तो अहंकार ख़त्म , अहंकार ख़त्म तो बच्चे , बूढ़े , अपने -पराये सबके प्रति स्वत : सम्मान भाव पैदा हो गया | तब तो भाई झगडा ही मिट गया |
एक और कटु मगर सत्य बात---
घर के बुजुर्ग अधिकतर बहु के व्यवहार से पीड़ित होते हैं | बाद में लडके भी बहु का साथ देने लगते हैं और बुजुर्गों को प्रताड़ित करने लगते हैं | इसके विपरीत बेटियाँ अपने माता -पिता की देखभाल करती हैं और उनके पति भी सास-ससुर की सेवा में लग जाते हैं |  भाई! यह दोहरा माप-दंड क्यों ? लड़की द्वारा अपने माता-पिता को तो सुवाली (एक पकवान ) , और सास ससुर को गाली  तथा लडके द्वारा भी माँ-बाप को गाली और सास-ससुर को सुवाली |  कभी-कभी लगता है की हम भारतीय संस्कृति में आमूल-चूल परिवर्तन करके कबीलाई संस्कृति की और जा रहे हैं | मेघालय में थाती जनजाति में विवाह के उपरांत लड़का विदा होकर लड़की के घर जाता है तथा लड़की ही घर की मुखिया होती है | अपने माँ-बाप का दायित्व भी उसी का होता है | क्या हम भी उसी सभ्यता को अपनाना चाहते हैं ?
जीवन में संयम  का बड़ा योगदान है | वाणी पर संयम , खानपान में संयम , आचरण में संयम | संयम का गहरा सम्बन्ध है नियम से | जहाँ नियम है वहां संयम है | जहाँ संयम है वहां क्रोध का नामोनिशान नहीं | क्रोध नहीं तो अहंकार नहीं | और जब अहंकार ख़त्म तो तुम " मैं" हो गए और मैं " तुम " हो गए | फिर किससे झगडा , किसका माँ-अपमान ? स्वयं का तो नहीं-----
कर दीजिये पूर्ण समर्पण
अहंकार का
अपने प्रभु के सामने
देखिये फिर कृपा उसकी
क्या मिले संसार में |
जी-हाँ दोस्तों, प्रभु की कृपा बेमिशाल है | हमारे वृद्ध माता-पिता तथा बुजुर्ग ही  हमारे  जीवित भगवान् हैं | हमें यथा संभव उनकी सेवा करनी चाहिए | उनका स्थान घर की गैराज या दुछत्ती नहीं अपितु घर का प्रथम कमरा होना चाहिए | बच्चों को सिखाएं की प्रातः व शाम उनका आशीर्वाद प्राप्त करें----
कोई तो मानवता की राह बताने वाला हो
कष्टों में भी धैर्य रखें,यह समझाने वाला हो |
और वह होते हैं हमारे बुजुर्ग | हमारे दुखों का सबसे बड़ा कारण हमारी " अपेक्षा " है , गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है " कर्म किये जा, फल की चिंता मत कर |" हमें चाहिए की सदाचरण से फलों वाले वृक्ष लगायें , उनकी छाया व फलों की प्राप्ति किसे होगी इस पर विचार न करें | आखिर जो वृक्ष लगेंगे अंतत : पृथ्वी का प्रदुषण तो ख़त्म करेंगे ही और पशु , पक्षियों तथा मानव को भी यथा संभव फल , इंधन व औषधि भी प्रदान करेंगे |  यही तो है गीता का सार | वही आचरण हमें अपने बुजुर्गों से करते हुए स्वयं को तथा अपनी संतान को श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करना है |
सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ाना
जिंदगी का मज़ा लेना,मौत को ठेंगा दिखा देना |

और
मैं गम के हर पल में भी ख़ुशी का लम्हा तलाशता हूँ
शायद मैं बच जाऊं ,गम में घुलकर मिट जाने से |
मैं आपको बता दूँ की भारत के 125 करोड़ लोगो में से मैं ऊपर के 10 करोड़ लोगों में हूँ  यानि लगभग 115 करोड़ लोग कहीं न कहीं मुझसे पीछे ही हैं । मेरे पास जो भी कुछ है उसके लिए मैं ईश्वर का आभार प्रकट करता हूँ  और अधिक से अधिक पाने के लिए मेहनत करता हूँ । परन्तु ईश्वर को गाली नहीं देता । गाली देने का अर्थ है स्वयं को तनाव में रखना । तनाव से रक्त-चाप (ब्लड-प्रेशर )में वृद्धि , फिर दिल की बिमारी , डॉक्टर , दवाइयां , स्वयं भी दुखी और परिवार भी दुखी, तथा पैसे की बर्बादी ।  जबकि सकारात्मक विचार से मौत पर भी विजय----
मौत से भी जिंदगी का फलसफा मैंने पढ़ा
नेकी की राह बढ़ा और बदी  से तौबा किया।
मौत आई द्वार पर मेरे और कहने लगी,
मर कर भी तुमने जिंदगी को पा लिया ।
मित्रों, भगवन ने श्रृष्टि बनायीं और माँ -बाप ने हमें जन्म दिया ।  वही माँ-बाप बुढापे में अपने ही  बच्चों की उपेक्षा का शिकार  होकर भटकते हैं तो पीड़ा होती है । जीने के लिए मात्र भोजन नहीं अपितु अपनों का प्यार व सानिध्य भी चाहिए । अपने बुजुर्गों को बोझ नहीं बल्कि अनुभवों का खजाना समझते हुए लाभ उठायें । वृद्धाश्रम समस्या का समाधान नहीं है । अक्सर बच्चे आरोप लगते हैं कि बुजुर्ग उनके विचारों से तालमेल नहीं कर पाते और वह इसे जेनरेशन गैप बताते हैं ।  एक बात समझ लें कि  जब हम अपनी कुछ वर्ष पुरानी बेड टी या सिगरेट पीने की आदत नहीं छोड़ सकते हैं तो बुजुर्गों को वर्षों पुरानी दिनचर्या को छोड़ने के लिए बाध्य न करें , उनके साथ सामंजस्य स्थापित करें ।  अगर आप और हम अपने बुजुर्गों का सम्मान कर पायेंगे तो निशित रूप से हर पल खुश रहेंगे तथा सुख-समृद्धि आपके परिवार को नित नए मुकाम दिलवाएगी ।


डॉ अ कीर्तिवर्धन
विद्या लक्ष्मी निकेतन
53 - महालक्ष्मी एन्क्लेव ,मुज़फ्फरनगर -251001 (उत्तर प्रदेश)
a.kirtivardhan@gmail.com   मोबाईल 08265821800

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