नया दौर
नये दौर के इस युग में , सब कुछ उल्टा पुल्टा है ,
महँगी रोटी सस्ता मानव , गली गली में बिकता है।
कहीं पिंघलते हिम पर्वत , हिम युग का अंत बताते हैं,
सूरज की गर्मी भी बढ़ती , अंत जहाँ का दिखता है।
अबला भी अब बनी है सबला , अंग प्रदर्शन खेल में ,
नैतिकता का अंत हुआ है , जिस्म गली में बिकता है।
रिश्तो का भी अंत हो गया , भौतिकता के बाज़ार में
कौन, पिता और कौन है भ्राता , पैसे से बस रिश्ता है।
भ्रष्ट आचरण आम हो गया , रुपया पैसा खास हो गया ,
मानवता भी दम तोड़ रही , स्वार्थ दिलों में दिखता है।
पत्नी सबसे प्यारी लगती ,ससुराल भी न्यारी लगती ,
मात पिता संग घर में रहना , अब तो दुष्कर लगता है।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
विद्यालक्ष्मी निकेतन
53 -महालक्ष्मी एन्क्लेव
मुज़फ्फरनगर -251001 ( उत्तर प्रदेश )
8 2 6 5 8 2 1 8 0 0
बढ़िया प्रस्तुति ।
ReplyDeleteमेरी नई रचना :- चलो अवध का धाम
dhanyawad rajesh ji , aapke sneh se urja mili.
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