राष्ट्रीय सरोकारों का सागर - सुनो शिखर पुरुषों -
सो गए तुम ही अगर , तो यह देश कैसे बचेगा
प्रगति का इतिहास नूतन , राष्ट्र यह कैसे रचेगा ?
जागते रहना तुम्हे है , उठो तंद्रालस भगाओ ,
सो रहे हैं लोग जो , झकझोर कर उनको जगाओ ।
“सुनो शिखर पुरुषों “ डॉ राम पुनीत ठाकुर “ तरुण “ की प्रकाशित दूसरी कृति है। सन 1950 में बिहार की साहित्यिक एवं क्रांतिकारी उर्वरा भूमि पर जन्मे ठाकुर साहब में बालपन से ही दोनों प्रतिभाएं यानि साहित्य तथा क्रांति दृष्टि गोचर रही हैं। मात्र 12 -13 वर्ष की आयु से राष्ट्रीय सरोकार , जन चेतना एवं राष्ट्र भक्ति का स्वर उनकी लेखनी से प्रस्फुटित होता रहा है।
प्रस्तुत कृति “ सुनो शिखर पुरुषों “ की रचनाएं उन्हें राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त , पंडित सोहन लाल द्विवेदी व दिनकर जी की श्रेणी में स्थापित कराती हैं। यह संग्रह राष्ट्र के उन युवाओं व सैनिकों को समर्पित है जिनका एक मात्र उद्देश्य भारत की आन-बान -शान बनाए रखना है , जिनके खून में राष्ट्र भक्ति हिलोरें ले रही है , जिनकी भुजाएं राष्ट्र के दुश्मनों को ख़त्म करने को मचलती हैं, जिनके मन में आतंकवाद , नक्सलवाद , क्षेत्रवाद , आरक्षण व भ्रष्ट्राचार से निपटने की जवाला प्रज्वलित है। ।
प्रतिभाएं जो झेल रही है , दंश उपेक्षाओं के ,
जिनके लिए बंद हैं सारे , द्वार अपेक्षाओं के ।
लेकिन हैं जीवित जो केवल , कुछ विशिष्ट करने को ,
भारत को महिमामंडित , विकसित , सुपुष्ट करने को।
जिनका है बस ध्येय , कहीं भी झुके न केतु तिरंगा ,
प्राण रहे - ना रहे , बचे गिरिराज , हिमालय , गंगा।
आतुर हैं जो सीमा पर , करने को शोणित तर्पण ,
“ सुनो शिखर पुरुषों “ !उनको ही करता हूँ अर्पण।
वस्तुत: “सुनो शिखर पुरुषों “ राष्ट्र भक्ति , प्रेरणा , युवाओं का आह्वान है और उन नेताओं पर जो देश को लुटने व डुबोने में लगे हैं , कटाक्ष है। इस लघु पुस्तिका में राष्ट्र भक्ति एवं ओज के 40 गीतों / कविताओं को समेटा गया है। प्रत्येक गीत सरल भाषा में , गेयता के गुणों से भरपूर , दिल को छूने वाली एवं ऊर्जा का संचार करने वाली शैली से युक्त है। अपने बचपन में हम पढ़ा करते थे ---
भरा नहीं जो भावों से , बहती जिसमे रस धार नहीं ,
वह हृदय नहीं , वह पत्थर है , जिसमे देश से प्यार नहीं।
आज इस संग्रह को पढ़कर अपनी युवावस्था में लौटने जैसा ही लगा।
सुनो शिखर पुरुषों “ तरुण जी की 50 वर्षों की काव्य साधना से चुनी गई कविताओं / गीतों का संग्रह है। मूलत: इस संग्रह की कवितायें मेरी दृष्टि में तीन खण्डों में विभाजित की जा सकती हैं ,
प्रथम तात्कालिक प्रतिक्रया युक्त -- जिनमे चीन व पाकिस्तान द्वारा भारत पर हुए हमले की प्रतिक्रया , ललकार एवं युवाओं का आह्वान है।
दूसरी -राष्ट्र जागरण--जिनमे राष्ट्र भक्ति , विकास , सृजनात्मकता , राष्ट्रीय चिंतन व सरोकारों युक्त रचनाएं हैं।
तीसरी प्रकार की रचनाएं जिनमे भ्रष्टाचार , लूट खसोट , आतंक, नक्सलवाद के पीछे नेताओं का हाथ व उसके प्रति जनता को आगाह करने का प्रयास है।
वन्दे शारदे
मुझे बुद्धि वर दे
मृदु स्वर दे। ( डॉ अ कीर्तिवर्धन )
माँ शारदा की वन्दना के बिना तो कुछ भी संभव नहीं है। मगर तरुण जी माँ से भी राष्ट्र भक्ति की कामना करते हैं . प्रेम दे , सदभावना दे
ह्रदय दे , संवेदना दे
मधुर मृदु स्वर दे मुझे , माँ शारदे।
त्याग ताप की शक्ति दे , माँ
राष्ट्र के प्रति भक्ति दे , माँ
प्रगतिमय कर दे मुझे , माँ शारदे।
एक दौर था जब भारत गुलाम था, कभी मुगलों का तो कभी अंग्रेजों का , जिसके जाल से निकलने के लिए अनेक वीरों ने कुर्बानियां दी , जिनके प्रयासों से हमें विदेशी दास्तां से मुक्ति मिली -
जिस आज़ादी की खातिर “ आज़ाद “ भगत , कुर्बान हुए ,
जिसकी खातिर “ खुदी राम , बिस्मिल ने अपने प्राण दिए।
जिस आज़ादी की खातिर , माँ -बहनों का श्रृंगार लूटा ,
उस आज़ादी की रक्षा में , हम सर्वस्व लुटाएँगे ,
धरती से उठ अंतरिक्ष में , राष्ट्र ध्वज फहराएंगे।
कवि तरुण ने जहाँ सच्चे सेनानियों ,वीरों को स्मरण किया है वहीँ आज़ादी के दौर के कवियों की परम्परा को भी जीवित रखा है। श्री राजमणि राय मणि जी ने पुस्तक की भूमिका में इसी भावना को विस्तार से व्यक्त किया है। विदेशी शासन से आज़ाद होने के पश्चात भी क्या हम आज़ाद हो पाए हैं ?
सहम उठा है ,देश देख सत्ता का खेल घिनौना ,
नेताओं के कद के सम्मुख , देश हो गया बौना।
कुर्सी की छिना- झपटी , जनतंत्र हुआ घायल है ,
तंत्र सुखी,जन दुखी,प्रजा के साथ हो रहा छल है।
राष्ट्रभक्ति की नहीं भावना , पद का प्रेम प्रबल है ,
सामाजिक नय का , जनहित का , नारा केवल छल है।
जनता लुटे -पिटे , चीखे चिल्लाए , फिर मर जाए ,
फुर्सत है किसको , जो उस पर कृपा दृष्टि बरसाए।
राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों , सरदार पटेल जैसे महान सेनानीयों को मुख्य धारा से अलग करके, लूट -खसोट का खेल आरम्भ हुआ। उसी की कड़ी में भ्रष्टाचार ने अंकुरित होकर अमर बेल की तरह अपना विस्तार किया। अमर बेल यानी राष्ट्रीय स्तर से गली -मोहल्लों तक नेता उगने लगे - बिना खाद,पानी व जड़ों के और खेल प्रारम्भ हुआ “ तू मेरी कमर खुजा और मैं तेरी कमर खुजाऊं “।
ऐसी स्थिति में राम पुनीत ठाकुर जी की पीड़ा दृष्टव्य है -
वही नेता हमारा जो जनों को चूसता है ,
पड़े यदि काम कोई भी , नहीं कोई पूछता है।
भरी है जेब जिसकी , बोलता है वह उसी से ,
उसी का दर्द दुःख: है , बांटता बढ़कर ख़ुशी से।
प्रश्न यह है कि कब तक देश की जनता लूटती रहेगी ? भारतीय संस्कृति- सभ्यता अपना मौलिक स्वरुप खोकर पुन: पुन: गुलामी में जकड़ी रहेगी ? हमारी आस्था व प्रेरणा के स्रोत्र क्या यूँ ही सुख जायेंगे , क्या युवा उनका महत्त्व नहीं जान पायेंगे ? इसी विचार बिंदु को जन जन तक और ख़ास तौर से युवा पीढ़ी को बताने के लिए ठाकुर तरुण जी कहते हैं ---
मस्तक पर शोभित हिम किरीट ,
तन पर दुकूल बहुरंगा छींट।
सागर करते पद प्रक्षालन ,
रवि-शशि उतारते नीराजन।
तू राम कृष्ण की पुण्य भूमि ,
जय जन्म भूमि - जय मातृ भूमि।
भला भारत का इससे सुन्दर वर्णन क्या हो सकता है। सम्पूर्ण विश्व में ऐसा कोई देश नहीं है जहां पर छ: ऋतू होती हों तथा गंगा , यमुना ,सरस्वती, ब्रहमपुत्र जैसी अनेकों नदियाँ प्रवाहमान हों।
कहते हैं कि पूत के पावँ पालने में ही दिख जाते हैं ,जी हाँ मात्र 12 -13 वर्ष की आयु में जब राम पुनीत वास्तव में ही तरुण थे , उस समय उनके ह्रदय में उठी कविता की लहर ठीक उसी प्रकार की थी जिस प्रकार “ क्रोच पक्षी वध व उसकी चीत्कार ,करुना क्रंदन को सुनकर वाल्मीकि के ह्रदय से प्रथम कविता का अंकुरण हुआ था। 24 -10 -1962 को लिखी एक कविता दृष्टव्य है --
चीनियों ! भारत हमारा , विश्व का सिरमौर सब दिन ,
शान का इतिहास इसका , थकोगे तुम पृष्ठ गिन गिन।
तुम छली हो , घातकी हो , हम तुम्हे फटकारते हैं ,
शक्ति है तो सामने आ , हम तुम्हे ललकारते हैं।
उसी दौर की यानी डॉ राम पुनीत जी के बाल्यकाल की कुछ रचनाओं की बानगी ,जो उनके व्यक्तित्व को राष्ट्रवादी , ओजवादी , सकारात्मक सोच एवं गंभीर चिंतन की परिचायक हैं , दृष्टव्य हैं। ……. और उनके व्यक्तित्व को रेखांकित करने के लिए समीचीन भी -
कारागार में सिसक रही थी , भारत माता ,
देश प्रेम की धारा फूटी , वर्षों के संघर्षों से।
माँ को मुक्त कराने में , जिन वीरों ने बलिदान दिया ,
उन की कुर्बानी का किस्सा , फिर से तुम्हे सुनायेंगे।
धरती से उठ अंतरिक्ष में , राष्ट्र ध्वज फहराएंगे।
13 -09-1965 को लिखी कविता “स्वतंत्रता के सिंह “में पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए ललकार कर युवाओं का आह्वान --
परम पवित्र भारती
स्वतंत्रता सुशोभिता
तपस्विनी बनी हुई
खड़ी है ले नवीनता
उद्दंड पाक की बुरी निगाह है , बढे चलो।
निकालनी है आँख , हाथ में नयी कटार लो।।
1962 के भारत चीन युद्ध में देश ने बहुत कुछ खोया मगर यह भी देखा कि भारतीय वीर सैनिक यदि सीमा पर लड़ते हैं तो माँ-बहन-पत्नी -बेटियाँ भी अपने परिजनों को हंसकर सीमा पर भेजती हैं , अपना सर्वस्व गंवाकर भी गौरवान्वित होती हैं। .--
क्रांतिकारी वीर आये सामने ,
जान की बाज़ी लगा लड़ने लगे।
पुण्य बलि वेदी सुसज्जित हो उठी ,
शीश उस पर फूल से चढने लगे।
छीन गया बेटा , ना माँ रोयी ज़रा ,
भेज भाई को बहन हंसती रही।
मुक्ति की खातिर विहँस वीरांगना ,
वेदना वैधव्य को सहती रही।
मेरी दृष्टि में राम पुनीत ठाकुर जी की 1962 से 1966 के बीच लिखी गई कवितायें अत्याधिक महत्वपूर्ण हैं। राष्ट्रभक्ति , ओज व शिल्प की दृष्टि से सशक्त तथा गेयता गुणों से भरपूर तरुण जी की तरुनाई में भी संदेशवाहिनी बनी हैं। निरंतर चलती लेखनी ने डॉ ठाकुर को राष्ट्रीय सरोकारों से कभी विलग नहीं होने दिया , कश्मीर के बारे में -----
कश्मीर देश का मुकुट , स्वर्ग अवनि तल का ,
गोटा -बूटा , भारत माता के आँचल का।
हिमगिरी की शांत सुरम्य गोद में बसा हुआ ,
अविछिन्न अंग यह पावन भारत भू तल का।
अधिक विस्तार में लिखना चाहूँ तो ठाकुर साहब की प्रत्येक कविता पर पृष्ठ लिख सकता हूँ . संक्षेप में कहूँ तो मात्र कक्षा 7 यानी 11 -12 वर्ष की आयु से कविता का प्रस्फुटन , राष्ट्र भक्ति का अविरल स्रोत्र ,निश्य ही आप पर माँ शारदे का साक्षात वरदहस्त है।
अंत में इतना ही कहना चाहूँगा कि “ सुनो शिखर पुरुषों “ डॉ राम पुनीत ठाकुर की ओज ,राष्ट्रभक्ति, युवाओं का आह्वान कराती कविताओं का संग्रह है जिसमे उनकी तरुनाई से वर्तमान तक की रचनाओं की बानगी देखने को मिलती है। इस संग्रह की कविताओं के साथ कवि ठाकुर तरुण राष्ट्रीय कवियों की पंक्ति में अग्रिम दिखाई देते हैं।
साधुवाद।
पुस्तक --सुनो शिखर पुरुषों
मूल्य --100 /- ,पृष्ठ --115
कवि --डॉ राम पुनीत ठाकुर “तरुण”
प्रकाशक -प्रणव शंकर , समस्तीपुर
समीक्षक
डॉ अ कीर्तिवर्धन
विद्यालक्ष्मी निकेतन
53 -महालक्ष्मी एन्क्लेव,
मुज़फ्फरनगर -251001 ( उत्तर प्रदेश )
संपर्क -08265821800
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