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Wednesday, December 10, 2014

ret ke mahal-sari duniya ko mutthi me samaa sakataa hun


सारी दुनिया को मुठ्ठी में समा सकता हूँ,
विश्व में भारत का परचम फहरा सकता हूँ।
ख्वाब रेत के महल हों या हकीकत के रूबरू,
ख्वाहिशों को अमली जामा पहना सकता हूँ।


डॉ अ कीर्तिवर्धन  

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