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Sunday, March 29, 2015

yuva saahitykar kyaa padhen ------

प्रिय संजय जी,
दो दिन से दिल्ली में था, आज ही आकर आपकी जिज्ञासाएँ पढ़ी। मैं सभी का अपनी दृष्टि से समाधान देने का प्रयास करूँगा --
मेरी दृष्टि में वरिष्ठ साहित्यकार वह लोग हैं जिन्होंने साहित्य में अपना बहुत सा योगदान दिया है और निरंतर कार्यरत रहते हुए साहित्य साधना में रत हैं। कुछ साहित्यकार जो आयु के हिसाब से भी वरिष्ठ हैं और साधना में लगे हैं, उनको भी सम्मान की दृष्टि से ऐसा कहा जाता है।  मुझे लगता है कि इसका कोई निर्धारित पैमाना नहीं होता है।
साहित्य पढ़ना जरुरी है खास तौर से किसी भी साहित्यकार के लिए।  जहां तक नवोदितों को पढने की बात है, तो मेरा मानना है कि कोई  रचना पढने से पूर्व यह नहीं देखा जाता कि इसके रचियता नवोदित हैं अथवा वरिष्ठ। कभी कभी मुझे यह लगता है कि नवोदितों के मन में यह विचार ज्यादा है कि वह एक ही दिन में सूर- तुलसी बन जाएँ। हम आज भी जो भी कुछ लिखते हैं उस पर प्रतिक्रिया मिलेगी ही, यह सोचकर नहीं अपितु अपनी भाव क्षमता के अनुसार सृजन करते हैं। जिन पाठकों  की प्रतिक्रिया मिलती है उनका हृदय से आभार, जिनकी नहीं मिली उनसे कैसा शिकवा अर्थात हमें अपना कार्य करना है, प्रतिक्रिया देना अथवा नहीं देना पाठक का काम है।  अगर प्रतिक्रिया नहीं मिलती तो इसका मतलब यह कदापि नहीं है की रचना पढ़ी नहीं जा रही है। किसी भी सृजक का काम सृजन करना है, नवोदितों से मेरा निवेदन है कि रचना करते रहें, स्वयं की रचनाओं को कालान्तर से पुनः पढ़ें और आवश्यक संशोधन करते रहें।
हिंदी का पाठक न पहले कम था और न ही अब है। हिंदी पत्र- पत्रिकाओं का प्रकाशन बहुत अधिक बढ़ा है।  इंटरनेट जैसी जगह पर भी पाठकों को पढने के विकल्प मिले हैं। हाँ यह तो सच ही है कि जो रचना अधिक प्रभावी होगी उसके पाठक भी ज्यादा ही होंगे।
किसी लेखक या कुछ लेखकों को पढने से दृष्टि तो व्यापक हो सकती है मगर केवल किसी को पढ़कर साहित्यकार नहीं बना जा सकता।  सबसे पहले अपने अंदर के लेखक को जगाना होगा।  फिर अपने विचारों को कागज़ के कैनवास पर कलम की कूंची से रेखांकित करना होगा। विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं के निरंतर अध्यन और मनन से अपने लेखन का परिमार्जन आवश्यक है।  स्थापित साहित्यकारों अथवा गुरुजनो से लेखन की बारीकियों पर चर्चा और काव्य क्षेत्र में नियमों के पालन पर विचार विमर्श नवोदित लेखकों को विस्तृत फलक प्रदान करेगा। यह उतना महत्वपूर्ण नहीं कि आप किसे पढ़ें बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि आप किसी भी रचना को किस दृष्टि व भाव के साथ पढ़कर उसका कितना मनन करते हैं। पढ़ना तथा गुणना दोनों अलग प्रक्रियाएँ हैं।
मैंने समाज की जवलन्त समस्या “बुजुर्गों के साथ बर्ताव व वृद्ध आश्रम” का औचित्य पर बहुत सा कार्य किया। मुझे लगता है कि जितनी समस्या है उससे अधिक उसका दुष्प्रचार है। मेरा मानना है कि सम्पूर्ण भारत में वृद्धों की कुल सँख्या के एक प्रतिशत से भी कम वृद्ध पारिवारिक  कलह से पीड़ित हैं और उसमे भी सम्पूर्ण दोष परिवार का नहीं अपितु कुछ वृद्ध लोगों का भी है। इसी प्रकार भ्रूण ह्त्या, महिला मुक्ति तथा दलितों के सम्बन्ध में भी मैंने कुछ काम किया है।
मेरा युवा साहित्यकारों से अनुरोध है कि निरंतर पढने तथा अपने विचारों को कलम बद्ध करने की आदत बनाएं। थोड़ा सा लिखकर प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा न करें।   जब अच्छी रचना निकल कर आएगी तो स्वयं ही पाठक पसंद करेंगे। किसी भी चीज को सीखने की कोई उम्र सीमा निर्धारित नहीं होती। कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता। विचारों एवं भावनाओं पर किसी एक का न अधिकार है और न ही नियंत्रण। अपने विचारों और भावनाओं को नई दृष्टि से प्रस्तुत करना बहुत बड़ी साधना है।  
मैं समझता हूँ कि यदि हम अपने कार्य को महत्त्व दें, दूसरों को पढ़ने की आदत डालें और दूसरों की अच्छी रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया दें तो निश्चय ही हमें भी कोई समझेगा और पढ़ेगा।
सकारात्मक सोच का यह परिणाम है, मुश्किलों से जीत जाना मेरा काम है ,
डरता नहीं राह की रुकावटों से मैं कभी, आँधियों में दीप जलाना मेरा काम है।

डॉ अ कीर्तिवर्धन

8265821800

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