प्रसन्नता या शांति?
एक दिन बातों ही बातों में एक अन्तरंग मित्र यह पूछ बैठे, “तुम बहुत अच्छी बातें शेयर करते हो और तुमसे बातें करके अच्छा लगता है. लेकिन तुम हमेशा शांति की बात क्यों करते हो? प्रसन्नता, आनंद, और उत्सव की बात क्यों नहीं करते? वही सब तो हमें चाहिए? लोग चाहते हैं कि उनकी तकलीफें कम हों और जीवन में भरपूर आनंद हो. क्या प्रसन्नता की चाह रखना बुरी बात है?”
मेरे मित्र किसी गुरु के अधीन एक ध्यान समुदाय से जुड़े हैं जिसके सदस्य जीवन के आनंद की प्राप्ति के लिए कोई जप साधना आदि करते हैं. उस समय तो मैंने उन्हें यही कहकर टाल दिया कि मेरे लिए शांति अधिक महत्वपूर्ण विचार है पर बाद में विस्तार से सोचने पर मेरे मन में जो विचार आये उन्हें मैं आपसे शेयर करना चाहता हूँ.
यह सच है कि हम अपने हर उद्देश्य में सुख और प्रसन्नता की ही खोज करते हैं. संसार की बहुत सी समस्याओं से जूझते हुए हमारे मन में यही कामना सतत बनी रहती है कि हम सदैव सुखी रहें, प्रसन्नचित्त रहें. मैं भी सुख और प्रसन्नता की बातें करता हूँ लेकिन मेरे अब तक के जीवन का निचोड़ यह कहता है कि सुख और प्रसन्नता को लेकर हम सबके विचार भिन्न हैं. इन्हें किसी तय सांचे में परिभाषित नहीं किया जा सकता.
बहुत सरसरे अंदाज़ में कहूं तो प्रसन्नता आनंद की वह अनुभूति है जब हम किन्हीं दुःख-दर्द का अनुभव नहीं कर रहे हों. लेकिन यह प्रसन्नता की बहुत औसत परिभाषा है. प्रसन्नता बहुत उथला और अयथार्थ भाव है. उथला इसलिए क्योंकि यह देर तक साथ नहीं रहता. यह परिवर्तनशील है और बहुत सारे बाहरी तत्वों पर निर्भर करता है. इसके साथ ही यह अयथार्थ भी है क्योंकि जीवन में कुछ भी नियत नहीं है एवं दुःख-दर्द कभी भी सर उठा सकते हैं.
जीवन में आनंद प्राप्त करने और प्रसन्नता का मार्ग दिखानेवाली पुस्तकों के बारे में भी मेरी राय विषम है हांलांकि मैं उन्हें बुरा नहीं मानता. यदि आप उनमें दी गयी टिप्स को अपने जीवन में उतारकर स्वयं में आनंद और आशा का संचार कर सकते हैं तो मैं उन्हें पढ़ने का समर्थन करता हूँ. लेकिन ऐसी किताबों के साथ सबसे अधिक अखरने वाली बात मुझे यह लगती है कि ये किताबें लोगों को यह मानने पर विवश कर देती हैं कि आनंद की प्राप्ति ही जीवन का ध्येय है और मनुष्य को हर परिस्तिथि में प्रसन्न ही रहना चाहिए. समाज के बड़े अंश में इस धारणा के दुष्प्रचार के कारण ही अब उन औषधियों (mood elevating drugs) की मांग और खपत बढ़ती जा रही है जो रसायनों के द्वारा चित्त की अवस्था में बदलाव लाती हैं. ज़ाहिर है कि इस सबके पीछे अरबों डॉलर का व्यवसाय करनेवाली कंपनियों की सोची-समझी नीति है जिसके कारण आयेदिन नए-नवेले डिसॉर्डर और कॉम्प्लेक्स खोजे जा रहे हैं जिन्हें एक मैजिक पिल लेकर चुटकियों में दूर भगाया जा सकता है. इस बात की ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है कि पेड़ को हरा-भरा रखने के लिए उसकी पत्तियों को नहीं बल्कि जड़ को सींचा जाता है. जीवन में होने वाली तमाम विसंगतियों और उतार-चढ़ाव का उपचार हम बाहरी तत्वों में खोज रहे हैं जबकि वास्तविक समस्या हमारे भीतर है.
मुझे यह भी लगता है कि हमारे धर्मों और आध्यात्मिक परम्पराओं ने हमारे मन में आनंद की ऐसी छवि गढ़ दी है जिससे हम नहीं निकल पा रहे हैं. जो व्यक्ति किसी-न-किसी साधना या पद्धति का पालन कर रहे हैं उनमें भी अधिकांश का यह मानना है कि अपने ध्येय में सफल होने पर उन्हें अतीव आनंददायक पारलौकिक अनुभूतियों की प्राप्ति होगी. स्वर्ग की प्राप्ति, अमरता की संकल्पना, ध्यान, समाधि, आत्मज्ञान, निर्वाण आदि को हमने परमानंद से सम्बद्ध कर दिया है. मानव जीवन के हर संघर्ष और दुःख के लिए मैं आनंदपूर्ण दीर्घजीवन तथा ईश्वर-दर्शन की कामना, स्वार्थमय सुख-संचय, और अनात्म की भावना को उत्तरदायी मानता हूँ.
मैं स्वयं को पारंपरिक अर्थ में आध्यात्मिक नहीं मानता. कभी तो मैं ईश्वरवादी बन जाता हूँ और कभी जड़ नास्तिक. चाहे जो हो, आध्यात्म मेरे लिए आनंद की खोज नहीं बल्कि जीवन को क्षण-प्रतिक्षण उसकी पूर्णता और विहंगमता में जीने का अनुशासन है. मैं इसे शांति से देखता और अनुभव करता रहता हूँ… या ईमानदारी से कहूं तो ऐसा करने का सजग प्रयास करता रहता हूँ. मुझे लगता है कि यह संभव है. इसके लिए मुझे किसी आसन में बैठकर कोई ध्यान या जप करने की ज़रुरत नहीं है. आध्यात्म के प्रति मेरी यह धारणा प्रारंभ से ही ऐसी नहीं थी. मुझे हमेशा से ही यह लगता था कि कोई ईश्वर न भी हो तो भी हमारे भीतर आत्मा जैसा कुछ है जिसे कुछ विधियों के कठोर अभ्यास से देखा या अनुभूत किया जा सकता है. इस विषय पर मैं किसी प्रामाणिकता का दावा नहीं करता पर बहुत वर्षों के चिंतन-मनन और अभ्यास के बाद मुझे यह लगने लगा है कि हम बाहरी या भीतरी आनंद के छलावे में अपने जीवन को रेत की मांनिंद फिसलने दे रहे हैं. सिर्फ मन की सरल सहज शांति ही वह चीज़ है जिसे हम चाहें तो आसानी से प्राप्त कर सकते हैं पर उसे हम अवास्तविक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पीछे धकेल देते हैं.
मैं अपने अनुभव से यह कह सकता हूँ कि वास्तविकता में घट रही घटनाओं को साक्षी भाव से देखने से हमारे मानस और काया को शांति मिलती है, भले ही यह श्रमसाध्य और अप्रीतिकर हो. यह हमें उस दशा में ले जाता है जिसमें द्वैत नहीं होता. आप इसे आनंद भी कह सकते हैं पर इसमें कोई हिलोर नहीं है. यह संभवतः मथते हुए सागर की तलहटी है जहाँ सब कुछ एकसम है, जिसका अपना आनंद है. यह सुनने में आश्चर्यजनक लग सकता है पर किसी घोर वेदना से गुज़रनेवाले व्यक्ति के भीतर भी ऐसी ही भावना उपज सकती है क्योंकि उसके सामने कोई विकल्प नहीं होते. आपने भी किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में पढ़ा होगा या आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते होंगे जो बड़े-से-बड़े दर्द को भी अपार शांति से झेल गया होगा. यदि आप उसे निर्मोही कहेंगे तो मैं उसे अनासक्त कहूँगा. उस व्यक्ति का वर्णन करने के लिए ये दो भिन्न दृष्टिकोण हैं जिसमें आप किसी एक में अधिक सकारात्मकता देख सकते हैं.
सभी धार्मिक-दार्शनिक मान्यताओं में मैंने बौद्ध धर्म का गहराई से अध्ययन किया है और उससे अधिक साम्य रखता हूँ. बौद्ध मत में यह विचार बहुत प्रबल है कि प्रसन्नता और सुख की कामना अंतत दुःख की उत्पत्ति का कारण बनती है. आप इसे कर्म सिद्धांत और अन्य संबंधित प्रत्ययों से जोड़कर भी देख सकते हैं. इस विषय पर गंभीर मतभेद हो सकते हैं पर मुझे अब यही लगने लगा है कि सुखी या प्रसन्न रहने की चाह हमें ऐसे संघर्ष तक ले जाती है जिसकी परिणति निराशा और पश्चाताप में होती है.
जीवन अनुभवों की सतत धारा है. आप इसमें बहकर डूब भी सकते हैं और इसके विपरीत तैरने की जद्दोजहद में स्वयं को नष्ट भी कर सकते हैं. दोनों ही स्थितियों में आपका मिटना तय है. यदि आप इसे केवल बहते हुए देखेंगे तो सुरक्षित रहेंगे. तब आप स्थिर रहेंगे, शांत रहेंगे, और अन्तःप्रज्ञ बनेंगे. उस दशा में आपके भीतर मौलिक बोध उपजेगा और आप सभी वस्तुओं को खंड-खंड उनके परिदृश्य में देख पायेंगे. आवश्यकता सिर्फ दर्शक बनने की है, न तो नाटक का निर्देशन करना है और न ही उसमें कूद पड़ना है. आप जागृत अवस्था में जो कुछ भी करेंगे वही आपका ध्यान बन जाएगा. आप कितनी ही पुस्तकें पढ़ लें या पद्धतियाँ सीख लें पर स्वयं के भीतर उतरे बिना और स्वयं में परिवर्तन लाये बिना वे सब व्यर्थ ही रहेंगीं और आप प्रसन्नता या शांति (जो भी आपका ध्येय हो) से सदैव दूर रहेंगे.
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