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Saturday, February 18, 2012

shanti

धर्माचरण से ही शांति संभव है

राग (आ शक्ति) के समान कोई आग नहीं है। द्वेष के तुल्य कलह नहीं है। शरीर-धारण के सदृश कोई दुख नहीं है। शक्ति से बढ़कर कोई सुख नहीं है। ऐसा गौतम बुध्द (धम्मपद 202) ने कहा। यह शांति मूलत: तीन प्रकार की होती है – मन की शांति, समाजिक व्यवस्था की शांति और परम शांति जिसे निर्वाण भी कहते हैं। मनुष्य को इन तीनों किस्म की शांति की आवश्यकता होती है। सवाल यह है कि इन्हें हासिल कैसे किया जाए? सबसे पहले तो यह जान लें कि अपने-अपने हिसाब से बहुत लोग शांति के लिये प्रयासरत हैं, बस उनमें से कुछ एक मशहूर हो जाते हैं। एक ‘विख्यात’ शांतिदूत के साथ सैकड़ों शांति के मतवाले पृष्ठभूमि में होते हैं। संसार को इन सभी की जरूरत होती है जैसा कि एक पुरानी चीनी कथा से स्पष्ट है।
बहुत पहले एक व्यक्ति रहता था जिसके तीन बेटे थे, जो सभी डाक्टर बने, लेकिन शुहरत उनमें से सिर्फ एक को मिली। दूरदराज से नाउम्मीद रोगी उसके पास आते और ठीक होकर लौटते।
एक दिन किसी ने उनके पिता से मालूम किया- ‘तुम्हारे तीनों बेटे ही डाक्टर हैं, लेकिन सबसे छोटा ही सबसे मशहूर है, ऐसा क्यों है?’
उन्होंने जवाब दिया ‘मेरा छोटा बेटा मौत के मुंह में पहुंचे रोगियों को भी ठीक कर देता है इसलिये हर कोई उसे जानता है। मेरा मंझला बेटा रोग को गंभीर होने से पहले ही ठीक कर देता है इसलिये उसे कम लोग जानते हैं और मेरा बड़ा बेटा लोगों के स्वास्थ्य की इतनी अच्छी देखभाल करता है कि वे बमुश्किल ही बीमार पड़ते हैं इसलिए उसे कोई नहीं जानता। मेरे छोटे बेटे का नाम भले ही बहुत मशहूर हो लेकिन मेरा मानना है बाकी दोनों बेटों का कौशल भी अगर उससे ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं है।’
अधिकतर शांति के लिये प्रयास करने वाले लोग बड़े और मंझले बेटे की तरह होते हैं। पर्दे के पीछे रहते हुए वह परिवार में, समाज में शांति के बीज बोते हैं, उन्हें पानी खाद देकर परवान चढ़ाते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि व्यक्तिगत रूप से शांतिप्रिय व्यक्ति बनते हैं।
यह सही है कि मन की शांति विकसित करना कठिन होता है, उसका अगर इंतजार किया जाये तो शायद शांति के लिये शुरुआत ही न हो। यह काम इसलिए कठिन प्रतीत होता है क्योंकि हम मन की शांति को मंजिल समझते हैं बजाय इसके लिये वह हमेशा जारी रहने वाली प्रक्रिया है। दरअसल परिवार समाज की शांति के लिए आपको निवेश करना पड़ेगा तभी आप मन की शांति पा सकते हैं। बिना निवेश के खाते में से कुछ निकाला नहीं जा सकता। कुछ लोग कहते हैं कि वे शांतिप्रिय इसलिये नहीं क्योंकि दूसरे शांतिप्रिय नहीं है या वह वास्तव में प्रयास करते हैं लेकिन ‘स्थितियां’ और ‘दूसरे लोग’ दिखाते हैं कि शांति पर अमल नहीं किया जा सकता। यह अक्सर वह लोग होते हैं जो अपनी आंतरिक शांति विकसित करने के लिये पर्याप्त समय या ऊर्जा खर्च नहीं करते। मन की शांति हासिल करना आसान नहीं है क्योंकि इसका अर्थ है उन पुरानी आदतों को छोड़ना जो शांतिपथ में बाधक होती हैं। नयी सकारात्मक आदतें स्थापित करना इसलिये भी कठिन होता है क्योंकि छोड़ी गयीं पुरानी खराब आदतों का फिर से लौट आने का खतरा हमेशा मंडराता रहता है। हम सभी निश्चित रूप से मन की शांति के लिये अपने आपको अनुशासित कर सकते हैं। चुनौती अपने आपको बेवसूफी के दबाव में डालने की नहीं है बल्कि वह सब कुछ करने की है जो हम कर सकते हैं। हमारा बुनियादी स्वभाव शांति आधारित है। शांति के साधनों का उल्लेख करते हुए गौतम बुध्द (मज्झिम निकाय 2/2/8) कहते हैं, काम भोगों से, अमंगल कर्मों से पृथक रहना चाहिये।
मनुष्य तब तक विवेक सुख या उससे अधिक शांति को नहीं पाता जब लोभ, द्वेष, उच्शृंखलता, संदेह, असंतोष और आलस्य उसके चित्त को पकड़े रहते हैं। दूसरे शब्दों में धर्माचरण व ईशभक्ति से ही शांति संभव है, तभी बहाउल्लाह (निगुढ़ वचन, पृ. 14) कहते हैं, ‘रे मानवपुत्र!
अगर तू अन्तरिक्ष की गहनता को चीरता हुआ भी निकल जाए और आकाश के फैलाव को भी छान मारे तो भी हमारी आज्ञाओं के प्रति सर्व-समर्पण किये बिना और हमारे स्वरूप के सम्मुख नतमस्तक हुए बिना, तुझे कहीं भी शांति नहीं मिलेगी।’ यद्यपि भगवद् गीता (2/71) के अनुसार, शांति का अधिकारी वह मनुष्य है ‘जो सब कामनाएं त्यागगर और इच्छा, ममता व अहंकार छोड़कर रहता है, वही शांति प्राप्त करता है’ लेकिन कर्तव्यपालन भी शांति का मार्ग प्रशस्त करता है। कन्फ्यूशस (चुन-युंग, 14) कहते हैं, ‘बुध्दिमान मानव किसी अनुचित फल की लालसा के बिना स्वकर्तव्य पालन करता है।
वह किसी पद पर भी हो, सदा अपने पर नियंत्रण रखता हुआ, कर्तव्यपालन करता है। अगर वह उच्च पद पर हो तो अपने से छोटों को तंग नहीं करता, अगर वह छोटे पर होता तो अपने से बड़ों को अपनी तुच्छ और लोभ-पूर्ण याचनाओं से चिन्तित नहीं करता। वह सदा सत्य पर रहकर मनुष्यों से कुछ नहीं मांगता जब उसकी आत्मा की शांति व गंभीरता बराबर बन रहती है। वह अपनी विपतियों के लिये न देव को दोषी ठहराता है न मनुष्यों को। इस प्रकार संत तो अपनी आत्मा को शांत रखता हुआ दैवी इच्छा की पूर्ति की प्रतीक्षा करता है, लेकिन कर्तव्यविमुख मनुष्य अनुचित लाभ प्राप्त करने के लिये सहस्त्रों संकटजनक परियोजाओं में अपने को डाल देता है।’

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