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Monday, July 22, 2013

viklangataa

विकलांगता ? एक स्थिति बनाम समाजिक चश्मा

कुछ लिख के सो कुछ पढ़ कर सो जिस जगह जागा सबेरा उस जगह से बढ़ कर सो।
विकलांगता, जिसे समाज ने समस्या के तौर पर ही देखा और समझा। इतिहास में ऐसे बच्चों का नाम उनकी विकलांगता के आधार पर दर्ज मिलता है। अब नाम भले दूसरे बच्चों की तरह रखे जाने लगे हो मगर समाज की जुबान से अपशब्द गए नहीं है। जगह-जगह ऐसी गालियाँ ही उनकी पहचान बन चुकी हैं। उसकी नजर में जैविक और जन्मजात विकृति के आगे यह कुछ भी नहीं। महज एक रोग, एक अभिशाप। अगर आप भी ऐसा ही सोचते है तो कृपया ठहरिए, यह रोग नहीं बल्कि एक स्थिति है। ऐसी स्थिति जो कि सामाजिक पूर्वाग्रह और तरह-तरह की बाधाओं के कारण और जटिल बना दी गई है। जवाबदेही के नाम पर उन्हें और उनके हर सवाल को मेडीकल से जोड़कर देख लिया जाता है। फिर मेडीकल में ही पुर्नवास करने-कराने की दलीलें दे दी जाती हैं। विकलांग लोगों के संपूर्ण पुर्नवास पर आवाज लगाने वालों की तादाद अब भी गिनी-चुनी और अनसुनी है। हो भी क्यों न! क्योंकि वह आर्थिक और राजनैतिक स्तर पर कम और कमजोर है इसलिए बात चाहे शिक्षा, स्वास्थ्य या रोजी-रोटी की हो, उनकी जगह कहीं नहीं हैं। अपने यहाँ प्रतिनिधित्व पर आधारित लोकतंत्र का राज है। उनके हिस्से 'वोट' की ताकत नहीं, इसलिए किसी 'चुनावी' घोषणापत्र में नहीं। इसलिए योजना या नीति में नहीं। इसलिए प्रशासनिक कार्यप्रणाली की पहुँच से दूर या अकसर छूटे हुए हैं। मतलब वह लोग अब तक मुख्य धारा में कटे रहे हैं। और ऐसा बने रहने के लिए मजबूरी के शिकार हुए है। एक तरफ, ऊँची कुर्सी पर बैठे साहब लोग कहते हैं कि विकास में सबका साथ चाहिए। मगर सवाल है कि उन्हें जब मौका देने के पहले ही रोक दिया जाएगा तब वह कैसे समाज में अपनी रचनात्मक भागीदारी निभा पाएंगे? दूसरा, यह हताशा से घिरा ऐसा समुदाय है जो अपने प्रति कभी भरोसा कायम ही नहीं कर पाया। उसका कतार में सबसे आखिरी में होना स्वाभाविक है। दरअसल, विकलांगता को उसकी व्यापक और वास्तविकता में समझने के लिए एक जमीन चाहिए। ऐसी जमीन जिस पर विकलांगता के कारण और उसकी परिस्थियों पर प्रकाश डाला जा सके।
बड़वानी
मध्य-प्रदेश का एक गरीब, आदिवासी और विकास के मामले में बहुत पिछड़ा जिला है। जल, जंगल, जमीन के बावजूद दाने-दाने को मोहताज। यहाँ का आदिवासी समुदाय रोज कमाता और रोज खाता है या कई बार नहीं भी खा पाता है। योजनाओं को लागू करने को लेकर यह उपेक्षित और ऐसा इलाका है जो कम पढ़ा लिखा तथा शोषित है। जो बिखरा-बिखरा, असंगठित, उबड-खाबड़ पहाड़ी, जंगली और नदी-नालों से भरा है। जहाँ प्रशासन की सुविधाएँ भी दूर, बहुत दूर-दूर है। अंधविश्वास की भावना विकलांगता की (र्दु)दशा को मजबूती देते हैं। यह गप्प नहीं, सच है। इसलिए चार बातें जिले की असली तसवीर (सरकारी आकड़ों के हवाले से ही ) पर
(एक) प्रदेश में विकलांग समुदाय की कुल आबादी है: 14,77,708। जिसमें 11,08281 ग्रामीणजन है। यह कुल आबादी का 75 प्रतिशत भाग है। बड़वानी में कुल 17,782 जन विकलांग है, जिसमें 15,427 ग्रामीण अंचल से ताल्लुक रखते है।
(दो) प्रदेश में कुल 11,65,703 विकलांग जन गरीबी रेखा से नीचे है। बड़वानी का जिक्र किया जाए तो यहाँ 14,679 विकलांग जन इस अभावग्रस्त रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे है, जिसमें 13,052 ग्रामीण है। प्रतिशत में यह 89 आकड़ा बताता है।
(तीन) प्रदेश में कुल विकलांग आबादी में 51,5929 लोग आजीविका या रोजगार से दूर है। मतलब, प्रतिशतता के आधार पर 34.91। तुलना के लिहाज से बड़वानी में कुल 12,828 में से 3,561 विकलांग जन तो पूरी तरह बेकार है। मतलब, 28 प्रतिशत लोग काम की तलाश में यहाँ और वहाँ भटकते है।
(चार) प्रदेश में साक्षरता के मद्देनजर विकलांग जन की गणना की जाए तो 87,8310 निरक्षर है जो कि 59.44 प्रतिशत का आकड़ा बोलता है। इसी तरह बड़वानी में कुल 12,064 निरक्षर है, मतलब 68 प्रतिशत। मतलब कुल संख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा 'क' 'ख' 'ग' 'घ' से परिचित नहीं है। इस पर भी 10989 ग्रामीण है। यहाँ की प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर हालत को नाजुक ही बताया जाएगा क्योंकि इस तरह के तुलना 1,874 लोग ही कक्षा पाँचवी तक शिक्षा पा सके है। यह सफेद कागज पर विकलांग साथियों के खिलाफ जाता कैसा गणित है?
यह महज सख्याएँ नहीं, असली कहानियाँ हैं। ऐसी अनेक कहानियाँ यहाँ गागर में सागर बनकर छिपी हैं। यह सरकारी अंकों में मुख्य-धारा से अलग आदिवासी विकलांग जनता का सटीक आंकलन है। इस आंकलन का सार अथवा समस्या की मूल जड़ गरीबी में है। गरीबी के खिलाफ पहली लड़ाई भोजन को पाने से है। जो लोग धरातल पर हैं वो वाकिफ हैं कि भोजन की लड़ाई कोई आसान काम नहीें। आज के सारे हालात ऐसे वंचित समूह को भोजन से दूर रखने और केवल इसी के लिए संघर्ष में उलझे रहने की साजिश के तहत है। भोजन की कमी और साथ ही की गई कठोर मेहनत की वजह से अनगिनित माओं के पेट में पल रहा विकास यहाँ भी प्रभावित है। यहाँ आने वाली तकदीर को कुपोषित, मंदबुध्दि और विकलांग बनाने का क्रम जारी है। यहाँ भी भोजन की कमी को कम करने के लिए अकसर जहरीला या गंदा खाना खाया जाता है। जिससे शरीर असक्ष्म और मरने की स्थिति तक पहँच जाता है। या कई तरह की बीमारियों से घिर जाता है। अफसोस, विकलांगता को भी इन्ही बीमारियों में से एक मान लिया जाता है। बाकी का (कु)कर्म जानकारी और सुविधाओं के अ-भाव के माथे चढ़ता है।
यहाँ, सरदार सरोवर बाँध बनने के कारण पुर्नवास का काम भी अपनी गति पर है। ऐसे में अनगिनित लोगों को क्या करना चाहिए और क्या नही ? समझ नहीं आ रहा है। उस पर खासी तादाद में पाए जाने वाले विकलांग साथियों की हालत तो और भी सोचनीय है! फिलहाल, ऐसे हालातों के सही कारणों पर सोचा जाए। यह बेदखल इलाका तो महज एक केन्द्र है सच्ची बात तक पहुॅचने का।
आज का दौर बाजार और तकनीक की दौड़ है। इस दौड़ में गर्भावस्था के दौरान ही विकलांगता को लेकर भेदभाव बढ़ता जा रहा है। वह भी शिक्षित और शहरी समाज के सभ्य समझे जाने वाले समुदाय में। अब गर्भ में ही पल रहे लड़का/लड़की, उसकी शारीरिक बनावट और लिंग संबंधी जानकारी पायी जा सकती है। यह (जंगल में न रहने वाले नागरिकों का झुण्ड) शिशुओं को गर्भ में ही खत्म करने को लेकर उतावले है। ऐसे में यदि उन्हें यह मालूम हो जाए कि एक तो लड़की और उस पर भी विकलांग है तो भला ऐसे भूर्ण की खैर कितने सेकेण्ड। और अगर वह गलती से आ जाए तो ऐसा परिवार बेचारा बन जाता है। उनके दुख का कई गुना बढ़ना लाजिमी भी है। इस सबका दोष आखिरकार गर्भवती महिला के ऊपर ही जाता है। जबकि आज की तकनीक के मुताबिक गर्भवती महिला 100 प्रतिशत बेकसूर है। शुक्र, इस बात का अपने यहाँ तक ऐसे बाजार और ख्यालात नहीं पहुँचे। इसीलिए तो निमाड़ में लिंग-अनुपात साल दर साल स्थिर बना हुआ है।
बावजूद इसके, विकलांग लोगों की भारी भीड़ यूँ ही नहीं है। बहुत कारण हैं। ठीकरी ब्लाँक के सुराना गाँव की सरिता की बात ही ले। यह बच्ची पैदायशी मंदबुध्दि है। वह जैसे-जैसे बड़ी हुई घरवालों को उसमें असमानता और कमियाँ दिखाई देने लगी। जैसा कि होता आ रहा है, परिवार वालों का व्यवहार भी बदल गया। सरिता, क्योंकि कम दिमाग की बच्ची है इसलिए वह कुछ समझ न पायी। उल्टा, इस बदले व्यवहार ने उसके लिए बहुत-सी समस्याएँ पैदा कर दी। अब, परिवार वाले उसकी जिद और तरह-तरह की हरकतों से और ज्यादा नाराज रहने लगे। हालात यहाँ तक पहुँच गई कि उन्होंने उसे एक कोने में बाँधकर रख दिया। यह नासमझी ही तो है जिसके चलते सरिता अपने लोगों से कट गई है।
अनिल अभी 12 साल का है। जिला मुख्यालय से 4 किलोमीटर दूर उसका घर बिलावा गॉव की मुख्य-सड़क पर है। उसके दोनों पैरों में जन्मजात विकृति है। समय रहते सुधार की गुजांइश थी लेकिन पारिवार की आर्थिक हालात बहुत ही खराब रही। मॉ-बाप खेतों में काम कर किसी तरह दो वक्त की रोटी का बंदोबस्त कर लेते है। जब उसका कभी इलाज नहीं हो पाया तब उसमें बदलाव भी कैसे दिखता ?
राम, नगर की बस्ती से सटा गाँव कसरावद का है। 7 साल का और एक भील परिवार से। पैदा होते ही वह अपनी माँ से बिछड़ गया। वह जन्म-जात विकलांगता से ग्रसित था और थोड़ा बड़ा होते ही परिवार वाले भी उसकी इस कमजोरी को समझ गए। उसके पिता चिंतित रहा करते। कई दफा डाँक्टर-साहबों को दिखाया। हासिल कुछ भी न हो सका। आखिरकार, उन्होने हार मान ली। बच्चे की तरफ ध्यान भी कम होता चला गया। पिता ने दूसरी शादी कर ली। उनकी दूसरी पत्नी से पहली संतान लड़की हुई। सबका ध्यान उसी की ओर हो गया। पिता ही भूल गए, फिर दूसरी माँ तो सौतेली थी। उसने भी राम को अनदेखा कर दिया। हाँ, बूढ़ी दादी उसका सहारा बनी। वही उसे नहलाती, धौलाती, कपड़े पहनाती और दूसरे काम करती है। पैर पर पैर रखकर वह घसीट-घसीटकर चलता है। नतीजन, उसकी रीढ़ के निचले हिस्से में घाव हो गया है।
जब तक बच्चा गोदी में है अच्छा लगता है। गोदी के बाहर कितनी बाधाएँ नहीं हैं ? ऐसे बच्चे पर समुदाय ध्यान नहीं देता। उसे बोझ तथा पूर्व जन्मों के पाप समझकर परजीवी बना दिया जाता है। दूसरी तरफ, कुछ परिवार ऐसे भी होते है जो कि अपने लाड़ले की विकलांगता को दूर करने के लिए बहुत पैसा और समय खर्च करते है। परेशानियाँ झेलते हैं। बावजूद इसके जब उसकी स्थिति में खास सुधार नही होता तो बर्बादी की सारी जिम्मेदारी घर के ऐसे ही सदस्य के सिर फोड़ी जाती है। इस तरह एक ही परिवार के दूसरे लोग जो किसी कारणवश अपने जीवन मे नाकामयाब होते हैं वह भी अपनी दोषपूर्णता छिपाने के लिए इसी भाई या बहन को जिम्मेदार ठहराते है।
एक खास बाधा स्कूल का गेट या उसकी सीढ़ी से जुड़ा है। कहने की जरूरत नहीं कि जिन्दगी के 1,2,3 और 4,5...... जाने बिना सुंदर भविष्य की कल्पना बेमानी है। पढ़ाई लिखाई में भी विकलांग विद्यार्थी को लगातार उपेक्षित किया जाता है। राम के साथ भी ऐसा ही हुआ। जब एक स्थानीय-कार्यकर्ता ने उसे स्कूल भेजने का जिम्मा लिया तो इसके लिए उसकी प्यारी दादी से बात हुईं। दादी किसी तरह मान गई। लेकिन टीचर ने एडमीशन देने तक को मना कर दिया। उससे बात करना ही मुश्किल हो गया था। कार्यकर्ता ने बात को यही समाप्त करने की जगह पंचायत में खास लोगों से बात की। अभी, वह पहली में पढ़ने के लिए किसी तरह स्कूल जा जरूर रहा है। मगर, अधिकतर ऐसे बच्चे तरह-तरह की समस्याओं के कारण 'आओं स्कूल चलें हम' नहीें कहते। वह बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। इसमें शिक्षकों की सवेदनशीलता और अध्ययन के तरीकों पर बात उठनी चाहिए। शिक्षक, इसके पीछे काम काज में अतिरिक्त भार को कारण बताते है। जबकि विकलांग बच्चों को दूसरे गैर विकलांग बच्चों जैसा सम्मान चाहिए। साथ ही, उनकी योजनाओं से संबंधित सुविधाओं की जानकारी उपलब्ध करानी चाहिए। सहपाठी दोस्तों का अ-संवेदनशील रवैया और हतोत्साहन भी विकलांग विद्यार्थियों को स्कूल से बाहर का दरवाजा दिखता है। स्कूल में, संदवेनशील और एक समान व्यवहार का माहौल तैयार करना शिक्षक का काम होता है। वह विद्यार्थियों में सहयोगात्मक भावना जगा सकता है। ऐसे विद्यार्थियों को स्कूल जाने मे जिन बाधाओं का सामना करना पड़ता है उन पर विचार करना चाहिए। जैसे : कक्षा तक जाने के लिए सीढ़िया, मैदान, बैठक व्यवस्था, ब्लैक-र्बोड, उस पर लेखन प्रणाली, शिक्षक की आवाज, रोशनी, पेयजल तथा शौचालय तक पहुँचने का मार्ग आदि।
लड़कियों के साथ तो स्थिति और खराब हो जाती है। लड़की होने से उसे घर की चारदिवारियों में कैद हो जाना पड़ता है। विकलांगता ही उसकी शर्म और झिझक का कारण बन जाता है। जब वह ही अपनी विकलांगता को छिपाना चाहेगी तो फिर वह अपने अगले कदम मतलब अधिकार की बात कैसे करेगी ?
निर्मला बरेला, 14 साल की ऐसी बच्ची है जिसने कक्षा तीन तक पढ़ने के बाद कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा। वह तकरीबन 15 किलोमीटर दूर सिलावद (नदी पार) की है। एक पैर से विकलांग होने के कारण अकसर बीमार रहती है। पंजे के बल एड़ी को उठाकर, लचकती-सी चलती वह कई बार गिर भी जाती है। जब पहली बार उसको देखने यहाँ की महिला कार्यकर्ता पहुॅची तो वह भाग गई। धीरे-धीरे कार्यकर्ता द्वारा स्कूल चलने की हर कोशिश की जाने लगी। अब वह बच्ची कार्यकर्ता के पास तो आने लगी ,मगर माता-पिता के कहने पर! और एक दिन जब बच्ची के घर उसके अलावा कोई नहीं था खुद बच्ची ने महिला कार्यकर्ता को गालियॉ दी ।
कई बार कुछ जागरूक परिवार ऐसी लड़कियों को स्कूल भेजते है और कुछ ऐसी लड़कियाँ भी है, जो आस-पास की और लड़किओं को स्कूल जाते देख पढ़ने के लिए लड़ती हैं। मगर कितनी लड़कियाँ ऐसी होगी और वह भी इन आदिवासी क्षेत्रों में जो कि सभी बाधाओं को पार कर आज अपना मुकाम बना पाने में सफल हो पायी हैं ? स्कूली शिक्षा से नकारा ऐसा समुदाय प्रशिक्षण और कार्य कौशल से खुद-ब-खुद कट ही जाएगा। यह दशा आर्थिक तौर पर विकलांग बने रहने की दुदर्शा है। क्योंकि इस तरह वह रोजगार या परंपरागत धंधों से दूर हो जाएगा। काम के मामले में कुछ हाथ बिल्कुल खाली हाथ।
जिला मुख्यालय से तकरीबन 20 किलोमीटर दूर गाँव तलवाड़ा बुर्जग में दाएॅ पैर से विकलांग लक्ष्मण-सिंह चलते समय लकड़ी का सहारा लेता है। वह पाँचवीं फेल यह 27 साल का अविवाहित युवक है। लक्ष्मण निराश्रित पेंशन-योजना के तहत 150 रूपए प्रति-माह पाता है। आजीविका के लिए उसके पास एक पुरानी सिलाई मशीन जरूर है जिससे वह थोड़ा-बहुत पैसा कमाता रहा था, मगर वह मशीन अब खराब पड़ी हैं जिसे सुधरवाने में 300 रूपए का खर्च आएगा। एक गरीबी-रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाले व्यक्ति के लिए यह एक भारी रकम है। रकम की व्यवस्था न हो पाने के कारण लम्बे समय से उसका काम ठप्प है। बेकारी ने उसकी मुश्किलों को और बढ़ा दिया है। अपनी छोटी -सी झुग्गी में मटमैले कपड़े, बिखरे बाल और चहरे पर जमा गंदगी के साथ निराशाओं ने भी जड़े जमा ली है।
समाज का नकारात्मक सोच और खुद का कोई काम कर पाने को लेकर गिरा भरोसा बेकारी से निकलने नहीं देता। जब वह किसी और के भरोसे हो जाता है तो उसकी भावना, इच्छा और फैसलों को कोई महत्तव नहीं दिया जाता। यह तो एक लक्ष्मण की बात है। बाकी के न जाने कितने लक्ष्मण भीख माँगने को अपना एकमात्र उपाय समझ लेते है। हमारा समाज भी धार्मिक या सामाजिक तौर पर दान देने की गलत पंरपरा का निभाता है। इस तरह समुदाय की खासी तादाद अर्थव्यवस्था में अपनी भागीदारी नहीं दे पाते। जो लोग ऐसा नहीं कर पाते वह निर्णय की प्रक्रिया में भी कही कोई स्थान नहीं पाते। क्योंकि उसके पास पैसा ही नही। जबकि दुनियाँ पैसे से चलती है।
गरीब व्यक्ति हमेशा मानसिक तनाव में रहता है। मानसिक तनाव मानसिक रोग में बदल जाता है। गरीबी के कारण ही उचित उपचार नहीं हो पाता है। 17 किलोमीटर दूर ओसाड़ा गॉव के निवासी है। उसे, पिता की बीमारी और मौत ने मानसिक रूप से परेशान कर दिया। अंतिम-संस्कार के समय ढ़ोल-बाजे सुनकर वह कांप उठा था। फिर सीटी बजाना, घर से भागना, पत्थरों को फेंकना,गाली-गलौच करना, बड़बड़ना और तालियॉ बजा-बजाकर हंसना उसकी फितरत बन गई। बडवों के चक्कर में परिजनों ने 10 साल और हजारों रूपये बर्बाद कर दिए। गरीबी, जिसके कारण ही स्वास्थ्य के अन्य पहलुओं पर बुरा असर पड़ता है। पैसे वालों को देख कर हीन भावना आती है। इस कारण्ा बहुत तो परेशान होकर नशे में डूबे समाज को अपना लेते हैं।
अगर विकलांग समुदाय की मानवीय स्वभाव से जुड़ी अन्य जरूरतों पर बात की जाए तो सेक्स को नजर-अन्दाज नहीं किया जा सकता। एक तो खुद से ही दूसरा, दूसराें की देखकर उन्हीं की तरह अपनी महत्वाकाक्षाओं को तृप्त करना चाहते है। मगर इस बीच आने वाली विकलांगतारूपी पीड़ाएँ बाधा बनती हैं। जब उनकी इस प्रकार की माँग पूरी नहीें हो पाती तो मानसिक संतुलन की स्थिति बिगड़ती है। नाकामयाबी की ऐसी अवस्था कुछ गलत होने का अंदेशा जताती है। खैर, पुरूष तो किसी तरह अपने हिस्से की जिन्दगी जी लेते है मगर महिलाओं के लिए जिंदगी बद से बदतर बन जाती है। क्योंकि उसके लिए तो बंधन हैं, मर्यादाओं की एक दहलीज है। दहलीज के बाहर निकलने में ऐतराज। दहलीज के भीतर रहने में समस्याएँ। फिर, गरीबों का रेनबसेरा बहुत छोटा होता है। जो सीमित संसाधनों से बने होता है। एकाध कमरा और तंग दीवारें होती हैं। इन तंग दीवारों में परिवार के दूसरे सदस्यों की सेक्स गतिविधियाँ उनकी भावनाओं को कब तक रोक सकेगीं! भावनाएँ जागृत होती है। अगर वह अपनी इच्छाओं को दबाएँ भी तो इससे मानसिक हालत बिगड़ने का खतरा बन जाता है। कई बार समाज के दबंग मर्द विकलांग और कमजोर महिला को यौन शोषण का शिकार बनाने से नही चूकते। ऐसे में उनके द्वारा किए गए अत्याचार से जो गर्भ ठहरता है उसके लिए वहीं जिम्मेदार ठहराई जाती है। उल्टा उसे ही असामाजिक घोषित कर नरक के द्वार खोल दिए जाते है। कुछ परिवार यह सोचकर कि इनमे सेक्स संबंधी भावनाएँ होती ही नही है, उनकी तरफ ध्यान नहीं देते। उनकी यही कमजोरी उनके शोषण की एक मुख्य वजह बन जाती है। विवाह की समस्या में और रोढ़े अटकाती है।
आज के व्यक्तिवादी समाज में वृध्दों की हालत वैसे ही कमजोर हो गई है। ऐसे में विकलांग समुदाय के वृध्द लोगों की बात करें तो स्थिति ज्यादा नाजुक बन जाती है। देखा जाए, तो इस उम्र तक आते-आते विकलांग व्यक्ति या तो जी ही नही पाते या आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते है। और जो दोनो स्थितियो से बच निकलते है वह अकेलापन लिए होते है। अभावग्रस्त जीवन को ढ़ोने और केवल दुख को महसूस करने के लिए जिंदा रहते हैं।
सखाराम, 65 साल के आदिवासी बुजुर्ग और अपने दोनों पैरों से लाचार है। गाँव राजघाट, जो कि नर्मदा डूब में है। यहाँ उनका घर सबसे पहले एक छोटी-सी बेड़ी पर पड़ता है। अन्दर को नालियों से जाता गंदा पानी। कीचड़ से गलियॉ लथ-पथ और ऐसी स्थितियों से गुजरता हुआ उनका जीवन असंमजस में अटका पड़ा है। विकलांगता की वजह से बहुत परेशान रहता है। खासकर, शौचालय जाने पर। एक तो शौचालय की जगह गॉव से बहुत दूर, दूसरा रास्तों में आने वाले कटीले पेड़ और कंकड़। उसे किसी सहारे के लिए आदमी की जरूरत पड़ती थी। परिवार के बाकी लोग खूब काम करते है, उनके पास समय बहुत ही कम रहता है। सखाराम कुछ भी नहीं कर पाते। रात-दिन, बस पड़ा रहते है अकेला और बेबस बनकर। दूसरों से बातें करते हुए हिचकिचाते और घबराते है। सबकुछ असामान्य। हर जगह और हर समुदाय में इसी दृश्य का रोना है। इसके लिए जिम्मेदार कौन ?
जबाव आएगा खुद विकलांग आदमी, परिवार या समाज। तीनों के पहले जो चौथा नाम आना चाहिए वह है : सरकार। क्योंकि संविधान में हम एक जनकल्याणकारी गणराज्य की सीमा में रहते हैं। जहाँ सभी को बराबरी से जीना का हक है। सरकार के हिसाब से वह अपनी जिम्मेदारियाँ वखूबी निभा रही हैं। बहुत खूब। अपनी सारी जिम्मेदारियों को निजी हाथों में बेचकर। लेकिन निजी क्षेत्र में ऐसे लोगों के लिए सही राय तो बन ही नहीं पा रही हैं या बन ही नहीं सकती हैं। फिर सारा काम व्यापारी ही कर लेंगे तो सरकार की जरूरत क्या है?
इस सबके बाद जो सरकार का रोल बचता है उसके भीतर क्या वाकई ऐसे इंसान अपने हक और फायदों को जानने लगे है ? उनका पैसा उन तक पहँच रहा हैं ? क्या उनके हिस्से के पैसों को लेकर बीते दिनों कटौती नहीं हुई है ? क्या आने वाले कल में कटौती का मूड नहीं हैं ? अगर ऐसा कुछ भी नहीं हैं तो यह हालत क्यों है ? क्योंकि आज दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिलाओं की आवाज में दम है मगर इसी वर्ग में और पीछे ढ़केल दिए गए विकलांग साथी मौन है। उन्हें किसी और की आवाज का इंतजार है। किस-किस ने क्यों और कैसे-कैसे मुँह मोड़ा यह कहानी फिर सही।
दया नहीं, काम चाहिए। बराबरी और सम्मान चाहिए॥
शिरीष खरे

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