अथाह समन्दर, मैं बूँद छोटी, अपने वुजूद को कैसे बचाती,
स्वाति नक्षत्र की बूँद जैसे, सीप में गिरकर मोती बन पाती ?
ना चाहा कभी समन्दर में गिरूंगी, सागर में मिल समंदर बनूँगी,
काश गिरती किसी नदी ताल में जा,किसी प्यासे की प्यास बुझाती।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
No comments:
Post a Comment