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Monday, February 10, 2014

samikshaa-laamaaon ke mrusthal main

                                                                                                 डॉ अ कीर्तिवर्धन
                                                                                                            समीक्षक                       

                                                                        समीक्षा
                                                 लामाओं के मरुस्थल में
                                                                (लेखक-जय देव विद्रोही )

“लामाओं के मरुस्थल में “कहने को तो मात्र यात्रा वर्तान्त है जो कि 27 मई 1957 को धर्मशाला से शुरू होकर लाहौल स्पीति -रोहतांग तथा वापसी धर्मशाला पर 19 जुलाई 1957 को ख़त्म होती है। लेखक जयदेव जी उस समय मात्र 22 वर्ष के युवा थे और अपनी टीम में सबसे छोटे,व शारीरिक रूप से  भी,  जिसके कारण तत्कालीन जिलाधीश कांगड़ा श्री एन खोसला बार बार इनके ग्रुप लीडर प्रो परमानंद शर्मा से वायरलैस पर पूछते -”व्हॉट अबोट दैट बेबी हू वॉज वैरी ऐनक्शस टू गो टू स्पीति। “
लगभग 56 साल बाद आज उसी बेबी जयदेव की पुस्तक “लामाओं के मरुस्थल में” उसी यात्रा की यादों को पर्त दर पर्त रहस्य खोलती मेरे हाथ में है। पुस्तक की शैली इतनी रोचक है कि एक बार पढने बैठ जाओ तो पूरी पुस्तक पढने तक छोड़ ही नहीं सकते।  जैसा कि मैने पूर्व में ही कहा है कि यह एक यात्रा वृत्तांत है जिसमे 2 जुलाई 1957 को स्पीति घाटी में प्रथम चुनाव कराने के लिए कांगड़ा के तत्कालीन ज़िलाधीश श्री एन खोसला को नियुक्त किया गया था क्योंकि उस समय सम्पर्ण स्पीति घाटी कांगड़ा ज़िले में ही आती थी।  इस यात्रा का प्रारम्भ 27 मई को किया गया। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उस समय के युवा जय देव ने सम्पूर्ण यात्रा को अपनी डायरी में उस समय लिखा जब वह मात्र 22 वर्ष के थे और आज 56-57 वर्ष बाद पुस्तक का रूप दिया तो पढते समय ऐसा लगा कि पाठक स्वयं उस काल के घटना क्रम का साक्षी है।  शब्द चित्र बनकर आँखों के सामने से गुजर रहे हैं।
“लामाओं के मरुस्थल में” पढने से पहले मैं सोच रहा था कि लेखक ने कुछ दिन लामाओं के बीच रहकर उनकी दिनचर्या,रहन सहन ,रीति रिवाज़ आदि पर लिखा होगा, परन्तु लेखक ने अपने यात्रा वृतांत में इन सभी बिंदुओं को विस्तार से   न सही , छुया अवश्य है। इसमें स्पीति तक की कठिन यात्रा, परिस्थितियों, तत्कालीन असुविधाओं, सीमित साधनों के बावजूद कर्तव्य के प्रति सजग रहते हुए निर्धारित तिथी पर चुनाव करने का दायित्व व उत्साह, सहयोग की भावना का प्रबल उदाहरण है। कहीं 15000 फुट की ऊंचाई पर हिम ग्लेशियरों को पार करना, बिना पुल या रस्सी के पुल से अथवा ट्रॉली सिस्टम में रस्सा पकड़कर लटकते हुए नदियों को पार करना, कहीं बर्फीले पानी की नदियों से गुजरना, राह में खाने-पीने की कठिनाईयाँ, बोली की असमस्या लेकिन उत्साह का चित्रण है “ लामाओं के मरुस्थल में। “
एक अन्य महत्वपूर्ण बात और भी जो इस यात्रा वृतांत को 56 वर्ष बाद प्रकाशित होने पर भी महत्वपूर्ण बना देती है वह यह तात्कालिक भौगोलिक परिस्थितियों तथा विकास से वंचित स्पीति घाटी को जानने का अवसर मिला। दूसरी बात इस अंतराल में जय देव जी भी अपनी विकास यात्रा करते हुए “ जय देव -विद्रोही” बन गए। और उन्होंने इस यात्रा वृतांत को वर्त्तमान इतिहासकारों व अनेक पात्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेखों से जोड़कर तुलनात्मक भी बना दिया।  विभिन्न पत्रिकाओं के सन्दर्भों को देकर इतिहास की पड़ताल करने तथा प्राचीन इतिहास की कहानी को भी रोचक रूप से प्रस्तुत करने का कार्य विद्रोही जी ने बखूबी किया है।
पुस्तक की भूमिका इस यात्रा के ग्रुप लीडर प्रो परमानंद शर्मा जी ने ही लिखी है।  उनके शब्दों में “ जय देव विद्रोही ने अद्भुत को रुचिकर बनाने तथा पुराने का नवीनीकरण करने में सूक्ष्मता का सफल प्रमाण प्रस्तुत किया है। “
चूँकि यह वृतांत पूर्णतया सत्यता एवं स्वयं भोगे अनुभवों पर आधारित है, इसमे किसी कल्पना शक्ति का सहारा नहीं लिया गया,उस समय के भौगोलिक व ऎतिहासिक तथ्यों के साथ 1957 की स्पीति घाटी यात्रा का रोमांचक व सीधा साक्षात्कार है , इसलिये  आज के समय में इसका महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है जब सम्पूर्ण सुविधाएं हमारे पास  उपलब्ध हैं।
पुस्तक के लेखक और स्वयं उस दुर्गम यात्रा के नायक श्री जय देव विद्रोही ने जब इस यात्रा पर सबके विरोध के बावजूद जाने की जिद की थी तब वह मात्र “जय देव “ थे मगर आज पुस्तक पढ़कर पता चला की वह युवा तो उस समय भी “ विद्रोही” ही था ,परन्तु शायद उसे अपने विद्रोही होने का पता कुछ समय बाद लगा।  जय देव विद्रोही जी की सशक्त लेखनी को नमन करते हुए कहना चाहता हूँ कि वह स्वस्थ रहते हुए यूँ ही विद्रोही बने रहे और समाज को अपने अनुभव से दिशा प्रदान करते रहें।
आदरणीय जयदेव विद्रोही जी को अपनी चार पंक्तियाँ समर्पित करता हूँ----

मुश्किलों की नहीं, हौसलों की बात करता हूँ,
बुजदिलों में भी, साहस का संचार किया करता हूँ।
माना कि मंजिल है तेरी, आसमां से आगे,
मैं आसमां का जमीं पर ही आगाज़ किया करता हूँ।


समीक्षक


डॉ अ कीर्तिवर्धन
विद्यालक्ष्मी निकेतन
53-महालक्ष्मी एन्क्लेव,
मुज़फ्फरनगर-251001 _(उत्तर-प्रदेश)
08265821800

पुस्तक-” लामाओं के मरुस्थल में “
लेखक-श्री जय देव विद्रोही
दीपक साहित्य सदन,
शमशी-175126 (कुल्लू) हिमाचल प्रदेश
09318599987
प्रकाशक-अक्षरधाम प्रकाशन,
कैथल (हरियाणा)
मूल्य-150/-

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