न जरुरत शोलों की, ना तमन्ना में चिंगारी है,
मुझे तेरी जरुरत है, तू मुझको जाँ से प्यारी है।
आरजू, वफ़ा, तमन्ना को जो, जुर्म-गुनाह कहते हैं,
इंसान नहीं होते वो, फकत जिस्म के व्यापारी हैं।
बिक सकता हूँ, मिट सकता हूँ, तेरी चाहत मोहब्बत में ,
वफ़ा का खरीदार नहीं, अभी बाकी गैरत और खुद्दारी है।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
कम शब्दों में ज्यादा आघात! बहुत अच्छी रचना. बधाई!
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