सामाजिक विषमताओं को ग़ज़ल में पिरोते ग़ज़लकार डॉ शरद कुमार मिश्र
मध्य प्रदेश ला शहडोल जिला अपनी साहित्यिक उर्वरा भूमि के लिए सदा ही चर्चित रहा है। डॉ शरद कुमार मिश्र भी उसी भूमि के वर्तमान में सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी 100 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा आपके साहित्य को केंद्र में रखकर अनेक शोध कार्य भी संपन्न हुए हैं। लम्बी- लम्बी ग़ज़ल कहने वाले डॉ मिश्र पर बिहार की सुप्रसिद्ध पत्रिका सुरसरि द्वारा विशेषांक प्रकाशित करने का निर्णय अत्यंत सराहनीय है।
सामान्यतः ग़ज़ल को हुस्न और इश्क की प्रशंसा में प्रारम्भ होना माना जाता है। ग़ज़ल की यात्रा में मानवीय इश्क़ से बढ़कर रूहानी इश्क़ की मंजिलें तय करती ग़ज़ल की नई मंजिल उर्दू भाषा के साथ साथ हिंदी के साथ पेंग बढ़ाती हुयी सामाजिक मूल्यों तक पहुँच गयी है। ग़ज़ल को हिंदी में स्थापित करने का श्रेय दुष्यंत जी को दिया जाता है मगर मेरे संज्ञान में लम्बी ग़ज़ल का कोई स्थापित नाम नहीं आता है। सामान्यतः ग़ज़ल 5-7 शेर को लेकर कही जाती है। लेकिन डॉ मिश्र जी ने तो ग़ज़ल का खंड काव्य ही रच दिया है। लम्बी लम्बी ग़ज़लों के प्रणेता डॉ मिश्र को मैंने “ हों तो हों “ में पढने का प्रयास किया। डॉ शरद जी ग़ज़लकार तो हैं मगर रूहानीयत के पैरोकार न होकर समाज के सजग प्रहरी हैं। उनका चिंतन सामजिक विद्रूपताओं के खिलाफ ग़ज़ल में प्रकट होता है --- बढ़ती आबादी पर उनकी ग़ज़ल ‘हों तो हों’ से --
लोग यूँ ही बढ़ते जाएंगे
भूमि पर अकाल हों तो हों।
आज के ज्योतिषों पर एक दृष्टि---
अपनी मौत की खबर नहीं,
देखते त्रिकाल हों तो हों।
मनुष्य के दोहरे चरित्र पर
आँख में घृणा भरी हुयी,
हाथ रंग गुलाल हों तो हों।
हमारा मानना है कि साहित्यकार का दायित्व समाज को जागृत। श्रृंगार रास में रचित साहित्य मनोरंजन कारक हो सकता है मगर वीर रस का साहित्य देश प्रेम के लिए उत्तेजित करता है। भक्ति रस में संसार की नश्वरता का बोध और समर्पण भाव जागृत होता है लेकिन नया रस जिसमे समाज को जीवन्त रखने की साधना है वह सर्वश्रेष्ठ है। जब समाज सबल, सशक्त होगा तब ही मनुष्य संभव है। डॉ शरद कुमार मिश्र की गज़लें समाज का प्रतिबिम्ब हैं। व्यंगात्मक शैली, सरल-सहज भाषा तथा लक्ष्य प्रहार आपकी विशेषता है --
खुल गया द्वार-द्वार तेरे लिए,
जग का सारा उधार तेरे लिए।
एक कांटें ने उँगलियों से कहा,
फूल का हर प्रकार तेरे लिए।
देश में बिगड़ती कानून व्यवस्था, जंगल राज, अपराधियों को सरकारी संरक्षण आम हो गया है ऐसी विषम परिस्थिति को मिश्र जी कितनी बेबाकी से बयां करते हैं-
भाग जा रे गवाह, कातिल अब,
जेल से फरार है तेरे लिए।
एक और चित्रण देखिये जिसमे चोर पुलिस के गठबंधन को उजागर किया गया है --
दिन में उनके पुलिस का घेरा
रात में सेंधमार तेरे लिए।
रेस्ट हाउस के कक्ष खाली हैं
आज से वन विहार तेरे लिए।
बढ़ाते नशे, सिगरेट, शराबखोरी से भी मिश्र जी चिंतित हैं --
होंठ को कैंसर की दावत थी
है हवाना सिगार तेरे लिए।
कड़वा पानी सनम के हिस्से में
बोतलों खुमार तेरे लिए।
कहा जाता है कि साहित्यकार की दृष्टि बड़ी तीक्षण होती है। भूतकाल के रहस्यों को तलाशती हुयी वर्तमान के मूल्यों को स्थापित करती भविष्य के लिए दिशा निर्देश देने का काम साहित्यकार की कलम ही करती है। -----नेताओं के चरित्र का बिम्ब -----
आज तक कर्ज है विरोधी का
कल से होगा प्रचार तेरे लिए।
खो जा आश्वासनों की पीनक में
लाएं हैं फिर सुधार तेरे लिए।
“हों तो हों” ग़ज़ल संग्रह में लगभग 61 गज़लें समाहित की गयी हैं जिसमे “या लकुटी अरु कमरिया पर “को ग़ज़ल का खंड काव्य ही कहा जाएगा तथा मुख्य ग़ज़ल हों तो हों भी बहुत लम्बी है। अन्य गज़लें भी सामान्य से अधिक बड़ी हैं ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि सामान्यतः ग़ज़ल में 5 -7 शेरों का ही समायोजन किया जाता है।
डॉ शरद की ग़ज़लों में सामाजिकता, नैतिकता तथा मानवीयता मौजूद है तो साथ में राष्ट्र चिंतन भी कूट-कूट कर भरा है ---
बाहें रहें अलग चलो दिल से मिलाएं दिल,
गीता तुम्हारे घर में हमारे कुरआन हो।
राष्ट्रीय एकता का इससे उत्तम सन्देश भला क्या हो सकता है। चुनावी दौर में नेताओं को चार आदमी इकट्ठा देखते ही प्रचार का अवसर नजर आता है भले ही वहां मंजर कुछ और हो--
लाश पर कुछ रो रहे थे कुछ बड़े पछता रहे,
आ गया वह नाचने महफ़िल सजाई देखकर।
डॉ शरद कुमार मिश्र जी की गज़लें समाज को सजग कराती हैं, सामाजिक तथा मानवीय मूल्यों में गिरावट पर तीखा प्रहार इनकी विशेषता है। आपका साहित्य संसार व्यापक है। एक नजर आपके कुछ मुक्तक पर भी -सीधा सपाट व्यंग ----
कुछ ज्यादा ही चढ़ा इस बार भाषा का नशा,
पाती सो मधुर स्वर का पुरस्कार कर्कशा
हकलों को बना बना व्याकरण का विधायक
हिंदी के भक्त कर रहे हिंदी की दुर्दशा।
वर्तमान में कवि सम्मलेन के मंचों पर मौजूद कवियों स्थिति पर भी एक चित्रण--
गुमनाम थे कल तक प्रसिद्द आज हो गए,
खुद अपने शीश पर चढ़े सरताज हो गए।
लेखन की कुछ पूंजी है दस कवितायें बीस छंद,
तोते सा मंच पर रटा कविराज हो गए।
मेरी डॉ शरद कुमार मिश्र जी को हार्दिक शुभकामनाएं और माँ शारदा से प्रार्थना कि आपकी लेखनी समाजहित में निरंतर चलती रहे।
पुनः सुरसरि पत्रिका के संपादक मंडल को विशेषांक निकालने के लिए साधुवाद।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
विद्यालक्ष्मी निकेतन
53 महालक्ष्मी एन्क्लेव
मुज़फ्फरनगर 251001 (उत्तरप्रदेश )
08265821800
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