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Sunday, January 25, 2015

itihas se khilvad ka ek sach

                  इतिहास से खिलवाड़ का एक सच

भारतीय इतिहास तथा संस्कृति के सभी पक्षों पर उत्पन्न समस्या के मूल में यूरोपीय विद्वानो का यूरोप केंद्रित दुराग्रह ही रहा है।  जिसके कारण हमारे भी अनेक विद्वानों ने शब्दों के विभिन्न अर्थ लगाकर, बिना सार समझें हमारी संस्कृति पर प्रहार कर यूरोपीय शासन की कृपा प्राप्त की। क्या भारत में गौ वध अथवा गौ मांस भक्षण की परम्परा थी ? क्या हमारे कर्म काण्ड वैज्ञानिकता पर आधारित थे ? यदि नहीं तो आज सम्पूर्ण विश्व के वैज्ञानिक हमारे विपुल साहित्य के सिद्धांतों को वैज्ञानिकी मान्यता क्यों प्रदान कर रहे हैं ? ऐसे अनेक प्रशन हमारे सम्मुख हैं जिनका जवाब तलाशने के लिए हमें इतिहास के पन्ने पलटने पड़ेंगे और उससे भी पहले यूरोपीय विद्वानों को प्रामाणिक मानने के पूर्वाग्रह से मुक्त होकर भारतीय वाङ्गमय को तलाशना होगा।  कहावत है कि “ थोथा चना बाजे घना” इस प्रवृति से बाहर निकल; भारतीय चिंतन की सार्थकता को समझने के प्रयास ही हमें हमारे शास्त्रों के सार तक पहुंचा सकेंगे। हमें यह भी देखना होगा कि वह क्या कारण हैं जिन भारतीय वैदिक शास्त्रों व धर्मग्रंथों में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के रहस्य छुपे हैं, वह भारत से लुप्त होते जा रहे हैं और यूरोपीय पुस्तकालयों में संरक्षित किये जा रहे हैं। हमारी अपनी देव वाणी -देव भाषा संस्कृत हमारे यहाँ से लुप्त होती  और जर्मनी में इस पर शोध किये जा रहे हैं ? प्रशन यह उठता है कि यूरोपीय विद्वानो की नजर में जब भारतीय संस्कृति का कोई मूल्य नहीं है तब भारतीय ग्रंथों के प्रति इतना आदर क्यों ?

उपरोक्त चर्चा को आगे बढ़ाने से पूर्व आपका ध्यान अमेरिका के अंतरिक्ष अनुसन्धान केंद्र में लगी भगवन अर्धनारीश्वर की प्रतिमा तथा प्रतिदिन भगवान की संस्कृत श्लोकों द्वारा पूजा अर्चना की और भी चाहता हूँ।  यह भी बताना चाहता हूँ की भारत में प्राचीन काल से “वैमानिक शास्त्र “ उपलब्ध है जिसके आधार पर तापद बंधुओं ने विमान का निर्माण राईट बंधुओं से पहले ही।  हमारे यहां आज भी श्वास विज्ञान उपलब्द्ध है जो कि विश्व में अभी भी कहीं और नहीं है।  साथ हीआपका ध्यान, रामचरित मानस में वर्णित “ढोल-गँवार-क्षुद्र पशु नारी, सबहुं तारण के अधिकारी “ जिसे कालांतर में प्रक्षेपित कर “ढोर गँवार शूद्र पशु नारी, सबहु ताडन के अधिकारी” कर दिया गया, की और भी आकर्षित करना चाहता हूँ। जिसका प्रयोग भारतीय वामपंथियों ने तथा दिल्ली प्रकाशन की पत्रिका सरिता ने समाज में विभेद पैदा करने के लिए किया। अर्थ का अनर्थ करने का एक और उदाहरण देखिये--

महाभारत में राजा रन्तिदेव के सन्दर्भ में कहा गया है=

राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्य वै द्विज।
द्वे सहस्त्रे तु वध्येते पशूनामन्वहं तदा।
अहन्यनि वध्येते द्वे सहस्त्रेगवां तथा। ।
समांसं ददतो ह्वान्नं रन्तिदेवस्य नित्यशः।
अतुला कीर्तिर्भुवन्नृपस्य द्विजसत्तम। ।  

यहां पर केंद्रीय शब्द वध को ह्त्या के अर्थ में प्रयुक्त कर प्रचार किया गया जबकि राजा रन्ति देव शाकाहारी थे और वध का अर्थ बांधना - बंधन में रखना भी है। इसी प्रकार समांस अन्न का अर्थ भी हमारे शास्त्रों के अनुसार दूध- चावल तथा शक्कर से मिलकर बनाया गया परमान्न है।  जिसे पायस तथा खीर भी कहा जाता है। हमारे ऋषि दीर्घतमा औचथ्य ने ऋग्वेद ( 1. 164 ) का पूरा अस्यवामीय सूक्त रचा है। यह उक्ति वैचित्र्य से भरा है और अनेक मन्त्र इस प्रकार चमत्कृत करते हैं कि अर्थ बैठाना कठिन हो जाता है ----
अत्र पिता दुहितुः गर्भं या आधात”  अर्थात पिता ने पुत्री में गर्भ का आधान किया।  विचारिये क्या यही है इसका सार --नहीं बल्कि इसका अर्थ है कि अंतरिक्ष (पिता) से बरसने वाले जल से पृथ्वी (पुत्री) सस्यवती होती है और यह क्रिया निरंतर चलती रहती है।  मूढ़मति तथा पूर्वाग्रह से युक्त महानुभावों ने इसी अर्थ का अनर्थ कर हमारे शास्त्रों पर टीका टिप्पणी कर हमारी संस्कृति तथा इतिहास से खिलवाड़ किया है।  

इस प्रकार के दुराग्रह की पड़ताल करने के लिए श्री भगवद्दत्त जी की पुस्तक “western indologists a study in motives” के कुछ अंशों को समझने का प्रयास किया है --
संवत 1814 (सन 1757) में प्लासी युद्ध के पश्चात बंग देश पर अंग्रेजों का आधिपत्य हुआ। सन 1782 में सर विलियम जोन्स को प्रधान न्यायाधीश बनाया गया जिन्होंने सन 1788 में महाकवि कालिदास कृत शकुन्तला नाटक तथा सं 1793 में मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद किया।  इसके बाद सर हेनरी थॉमस कोलब्रुक ने सन 1805 में ओन दि वेदाज नामक वेद विषयक निबन्ध लिखा। फ्रेडरिख श्लेगल ने सं 1808 में “हिन्दुवों के वांड्मय और प्रज्ञा” पर  ग्रन्थ लिखा। सन 1818 में जर्मनी के बोन विश्व विद्यालय में ऑगस्ट विल्हेल्म फान श्लेगल संस्कृत के प्रथम अध्यापक बने। जिन्होंने श्री भगवद्गीता का अनुवाद किया। एक अन्य विद्वान हार्न विल्हेल्म फान हम्बोलट का ध्यान इसके अध्यन की और गया। सन 1827 में उसने अपने मित्र को लिखा --
“It is perhaps the deepest and loftiest thing the world has to show” अर्थात “विश्व की यह संभवतः अगाध और उच्चतम वस्तु है”
इसी  जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेनहावर ने उपनिषदों  का लेटिन अनुवाद पढ़ा  और कहा “ उपनिषद मानव ज्ञान की सर्वोच्च उपज है, इसमे प्रायः श्रेष्ठ मानवीय विचार निहित हैं “, उन्होंने आगे लिखा “इसका पाठ संसार में उपलब्ध या सम्भाव्य सबसे अधिक संतोषप्रद और आत्मोन्नति का साधन है, यह मेरे जीवन के लिए सांतवनादायक रहा  मृत्यु के  सांतवनादायक होगा।“

जर्मन अध्यापक विन्टरनिज ने बड़े सम्मान एवं उत्साह से लिखा “When Indian literature become first known in the west, people were inclind to ascribe a hoary age to every literary work hailing from India. They used to look upon India as something like the cradle of mankind, or atleast of human civilization.” अर्थात जब पश्चिम ने सर्वप्रथम भारतीय वांग्मय  प्राप्त किया तब भारत से आने वाली प्रत्येक साहित्यक कृति को वहां के लोग सहज ही अति प्राचीन युग की मान लेते थे।  वे भारत को मनुष्य जाति का अथवा कम से कम मानव सभ्यता का उद्गमस्थल मानते थे।

ईसाई जगत के धर्मान्धता रहित सच्चे विद्वानो द्वारा की गई भारतीय धर्मग्रंथों की प्रशंसा से यहूदियों तथा ईसाई पादरियों में खलबली मच गयी। प्रतिशोध स्वरुप फ्री चर्च कॉलिज एबरडीन के यहूदी भाषा के प्राध्यापक तथा “The religion of the Semites” के लेखक को प्रोफ़ेसर पद से हटा दिया गया। इस बीच यूरोप में संस्कृत का अध्यन बढ़ता रहा। सन 1933 में ऑक्सफ़ोर्ड विश्व विधालय में संस्कृत के बोडेन प्राध्यापक ने खुलासा किया -----”मैं बोडेन पद का दूसरा ही अधिकारी हूँ।  इसके संस्थापक करनाल बोडन ने अत्यंत स्पष्ट शब्दों मे दिनांक 15 अगस्त सन 1811 के अपने इच्छा पत्र में लिखा है कि उसकी इस उदारतापूर्ण भेंट का विशेष उद्देश्य यह था कि ईसाई धर्म ग्रंथों का संस्कृत में अनुवाद किया जाए, जिससे भारतियों को ईसाई बनाने के काम में हमारे देश वासी आगे बढ़ सकें।”
इसी प्रकार प्रोफ़ेसर विल्सन द्वारा “हिन्दुओ की धार्मिक और दार्शनिक पद्धति” पुस्तक लिखी गयी।  पुस्तक लिखने का आशय स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं ==
“ये व्याख्यान उन लोगों की सहायता के लिए लिखे गए हैं जो  हिन्दुओं की धार्मिक पद्धति का भली भाँती खंडन करके हैलीबरी के प्रसिद्द विद्वान जान मयूर द्वारा प्रद्दत दो सौ पाउंड का पारितोषिक  सकें। “
इसी प्रकार रुडोल्फ राथ, डब्लू दी व्हिटनी, मैक्समूलर, वेबर और boehtlingak जैसे अनेक अनेक यूरोपीय विद्वानो ने संस्कृत के साथ खिलवाड़ किया और कारण केवल ईसाई धर्म को सर्वोच्च बताना।
मैक्समूलर 16 दिसंबर 1868 को तत्कालीन भारत के सचिव डयूक ऑफ़ आर्गाइल को पत्र लिखते हैं ----”भारत का  प्राचीन धर्म मृत प्रायः है, और यदि ईसाई धर्म उसका स्थान नहीं लेता तो यह किसका दोष होगा ?   
इस प्रकार योजनाबद्ध तरीके से भारतीय वेदों- उप निषदों के विरुद्ध षड्यंत्र चलाया गया जिसका मूल उद्देश्य था भारत  में ईसाई धर्म की स्थापना और इस उद्देश्य की पूर्ती के लिए यूरोपीय सरकारों ने पैसा पानी की तरह बहाया। हमारे यहां के विद्वानो को अनेक लोभ देकर अपने हितार्थ लेखन कराया। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने अंग्रेजों की  इस चाल को समझा और देशवासियों को इनके चंगुल में फंसने से सतर्क किया।
इसी प्रकार प्रोफ़ेसर वी रंगाचार्य लिखते हैं --प्रायः सभी अंग्रेज तथा अमेरिकी विद्वानों द्वारा स्वच्छन्दता से बनायी गयी इस धारणा ने कल्पनातीत शरारत की है कि मिस्त्र के प्रारम्भिक काल की तिथि कम से कम ईसा से 5000 वर्ष पूर्व की है और प्राचीन भारत की अंतिम संभावित तिथि भारत द्वारा उन देशों का अनुकरण करने के आधार पर बहुत पीछे की है।    

इतिहास के पन्नों में विगत 200 वर्षों के साहित्य का अध्यन करने से स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने के उद्देश्य तथा ईसाई धर्म की स्थापना के लक्ष्य से भारतीय ग्रंथों में वर्णित मन्त्रों के गलत अनुवाद किये गए, मिथ्या अवधारणाएं फैलाई गयी तथा मानसिक गुलाम बनाये रखने का बड़ा षड्यंत्र रचा गया।  विडम्बना है कि आज भारत के मनीषी अपने शास्त्रों का अध्यन न कर इन्ही अंग्रेज विद्वानों द्वारा की गई टिप्पणियों को सही मानते हैं।  हमारे संस्कृत के विद्वान भी बिना शोध किये और अपने शास्त्रों की गहराई में उतरे बिना ही सतही अध्यन-अध्यापन में रत हैं।  आज आवश्यकता है कि सभी विष विधालयों में संस्कृत का अध्यन अध्यापन  शोध केंद्र की स्थापना हो। सभी प्रमुख धार्मिक संस्थान  अपने यहां शोध केंद्र स्थापित करें जिनका उद्देश्य प्राचीन भारत के शास्त्रों का सच विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करना हो। सनातन धर्म की स्थापना तथा भारत को विश्व गुरु बनाने की दिशा में हमारा पहला कदम संस्कृत के अध्यन- अध्यापन का होना चाहिए।


डॉ अ कीर्तिवर्धन
विद्यालक्ष्मी निकेतन
53- महालक्ष्मी एन्क्लेव

मुज़फ्फरनगर-251001 उत्तरप्रदेश

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