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Friday, October 12, 2012

aksar aisa bhi --samiksha

मित्रों, कुछ दिन पूर्व मुझे सुषमा भंडारी जी, जो  मेरी मित्र भी हैं कि पुस्तक " अक्सर ऐसा भी  " प्राप्त हुई |पुस्तक को पढ़ा तो लगा कि कोई इतनी सरलता से सपाट बयानी में ,इतनी गहरी बातें भी लिख सकता है | पुस्तक पढ़ने के बाद मैंने रख दी कि अपने विचार लिख कर भेजूंगा मगर अन्य व्यस्तता के कारण कुछ लिख न सका |
आज अचानक मन हुआ कि थोडा सा उसी पुस्तक से आपसे साझा करूँ ताकि आप भी सुषमा जी के मन स्पंदन का आनंद ले सकें ----
हाँ मैं
उदास हूँ
बिन तुम्हारे
तुम जानो न जानो
हाँ मैं
पास हूँ
सिर्फ तुम्हारे
तुम मानो न मानो |

और यहाँ से शुरू होता है एक नया सफ़र सुषमा भंडारी कि नई किताब " अक्सर ऐसा भी " का | सुषमा जी का लेखन उनके आस-पास हो रही टूटन,घुटन,प्यार या नफरत सब का चिंतन मनन करता है और सरलता  मगर  बेबाकी से व्यक्त होकर पाठक को विचार करने पर मजबूर करता है....
शहर है न गाँव है ये
मगर ऐसी ठावं है ये
जब झुलसते पावँ मेरे
तब दिलाता छावं  है ये ....(मायका)
किसी भी स्त्री के लिए मायका बहुत महत्वपूर्ण होता है |मायके कि इससे अच्छी परिभाषा क्या हो सकती है  |
वर्तमान दहसत जदा माहोल पर
ऐसा क्यूँ
मंजर दिखता है
टुटा फूटा घर दिखता है
हंसी ठट्ठा सब रूठ गए क्यूँ
चहुँ और बस डर दिखता है ...
मैंने कहीं लिखा था..
दर्द को भी यूँ बयां करता हूँ
मुस्कराहटों में आहें भरा करता हूँ ...

आज सुषमा जी का दर्द देखा........बानगी देखिये
आहट----
दर्द छिपा है
मुस्कराहट मर
पहचान ही
न पाया कोई
खुशियों की
आहट में ...
एक और तो इंसान संवेदना शुन्य होता जा रहा है दूसरी और सुषमा जी साँसों की सरगम से बात करती नज़र आती हैं -
तेरी साँसों की
सरगम
बता जाती है मुझे
तेरे दिल के राज
बिलकुल बे आवाज़ ....
वह वह क्या अंदाज़ है अभिव्यक्ति का ,मैं तो कायल हो गया  सुषमा जी के लेखन का |
मेरी अशेष शुभकामनायें कि उनकी लेखनी निरंतर चलती रही और समाज का पथ पर्दर्शन करती रहे |
डॉ अ कीर्तिवर्धन
8265821800


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