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Wednesday, April 2, 2014

samikshaa sarvdharm sambhaav se sarvdharm samnya tak-dr gargi sharan mishra maral

               धर्म एवं संस्कृति का समन्वय

"सर्वधर्म समभाव से सर्वधर्म समन्वय तक" डॉ गार्गी शरण मिश्र मराल के निबंधों का ससंग्रह है जिसमे 38 निबंधों को एक माला में गुंफित किया गया है।  इन निबंधों का मूलस्वर तो भारतीय संस्कृति, सभ्यता तथा संस्कारों का संरक्षण एवं प्रसारण ही है।  मगर सुविधा की दृष्टि से लेखक के अनुसार इन्हे 6 खण्डों -धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, साहित्य कला, राष्ट्र भाषा, तथा शिक्षा सम्बधी में विभाजित कर समझने का प्रयास किया गया है।

धार्मिक विषयों पर केंद्रित आलेखों में सबसे पहला निबंध पुस्तक का शीर्षक आलेख ही है। सनातन धर्म विश्व का सर्वाधिक प्राचीन धर्म है। अन्य सभी धर्मों का कमोबेश इसी में से उदय भी हुआ। कालान्तर से आज तक सनातन धर्म की अवधारणा ही यही है कि सृष्टि के जर्रे-जर्रे में ईश्वर है, चल-अचल सबमे ही शक्ति पुंज है।  इसीलिए ही सनातन धर्म के अनुयायी सदैव सभी धर्मो, धर्मस्थलों, चार-अचार सबके आरती आदर भाव रखते हैं।  कालान्तर में अनेक धर्मों के उदय, कबीला प्रथा, वर्चस्व बनाये रखने की प्रवृति ने अन्य धर्मो तथा उनके अनुयायियों को कट्टरता के घेरे में सिमित कर दिया।  उनके यहाँ धर्म और ईश्वर प्राप्ति का आधार केवल उनके अपने धर्म की मान्यताओं तक ही सिमित है। निज धर्म को श्रेष्ठ साबित करने के प्रयासों ने सनातन धर्म की "वसुधैव कुटुंबकम् "की अवधारणा को खंडित करने का प्रयास किया है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि सनातन धर्म के ग्रंथों में सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण की बात कही गयी है।  नियम, संयम व आचरण, प्रकृति से सानिध्य एवं संरक्षणको प्रश्रय दिया गया है।  सर्वधर्म समभाव का कालांतर से आज तक बिगुल बजाने वाले भी सनातन धर्म के  अनुयायी रहे हैं चाहे वह प्रणामी सम्प्रदाय के  स्वामी प्राण नाथ जी  महात्मा गांधी।  मिश्रा जी के इस आलेख में अनेक भी दिए गए हैं जो स्वागत योग्य हैं। काश !  अन्य धर्मावलम्बी भी इस  से सहमत हो दो कदम आगे बढ़ें  निश्चय ही विश्व कल्याण सम्भव होगा।

भारतीय संस्कृति का प्राण तत्व समन्वय निबंध में सनातन धर्म चिंतन के विभिन्न बिंदुओको  के से वर्त्तमान  समझाने का प्रयास हमारी संस्कृति की विशेषता को दर्शाता है जिसके कारण अनेकोनेक कष्टों के बावजूद भी भारतीय आज भी सुखी एवं संतुष्ट पाये जाते हैं।  जीवन में संतोष या असंतोष की बात करें तो फिर वहीँ पर आ जाते हैं यानि सनातन धर्म की मूल अवधारणाओं पर जहाँ पर आदिकाल से ही कहा गया है कि “ सन्तोषम् परम सुखम। “भारतीय अवधारणा अध्यात्म व त्याग की है तथा पश्चिम जगत की भौतिक वाद व संग्रह की, जिसके कारण पश्चिम देशों में निराशा, कुंठा व असंतोष पनप रहा है। दुखद पहलू यह है कि हमारी युवा पीढ़ी भी पश्चिम की और उन्मुख होकर भारतीय चिन्तन व दर्शन से विमुख हो रही है।  ऐसी परिस्थितियों में  डॉ गार्गी शरण जी का यह आलेख नयी दिशा दिखाने वाला है।  

नाते नेह राम के मनियत निबंध में नेह यानि प्रेम की सारगर्भित व्याख्या की गई है--वास्तु के प्रति प्रेम को आसक्ति, आत्मा के प्रति प्रेम को अनुरक्ति और परमात्मा के प्रति प्रेम को भक्ति के रूप में व्याख्यातित किया गया है।  अगर तुलसी दास जी के “नाते नेह राम के मनियत “ का सार वर्त्तमान सन्दर्भों में देखा जाए  तो अधिकतम विश्व “आसक्ति” में लिप्त है।  अनुरक्ति एवं भक्ति से विलगता सांसारिक दुखो का कारण है। मूलत : हमारा अध्यात्मवाद, चिंतन, दर्शन सब हमारे ऋषि-मुनियों की अथक साधना व अनुभवों पर आधारित है।  जिसे जनमानस में अनूठे ढंग से स्थापित किया गया है। हमारे शास्त्रों में पीपल वृक्ष की पूजा का प्रावधान किया गया।  आध्यात्मिकता की दृष्टि से इसमे अनेक गूढ़ रहस्य छिपे हैं। मगर विज्ञानवाद ने इसे हमारा अंध विशवास बताकर  मजाक चाहा।  वैज्ञानिक खोजों से से आधुनिक वैज्ञानिकों को ज्ञात हुआ कि  पीपल वृक्ष 24 घंटे प्राण वायु का सृजन करता है तब वह हमारी आध्यात्मिक अवधारणा “ पीपल पर देव” का सार समझ सका।

विश्व शान्ति की परिकल्पना भी भारतीय संस्कृति की ही सोच है और शांति के लिए अहिंसात्मक समाज की अवधारणा भी हमारे शास्त्रों का ही सार है।  मगर हिंसा और अहिंसा को अस्त्र-शास्त्र की परिभाषा में नहीं समेटा जा सकता है। किसी को अपशब्द कहना भी हिंसा है तो राष्ट्र-समाज व धर्म की  रक्षा हेतु आततायियों की ह्त्या भी हिंसा की श्रेणी में नहीं आती। अहिंसा और विश्व शान्ति तब ही सम्भव है जब आप समर्थ, शक्तिशाली मगर दम्भ हीन हों। आपके शत्रु आपकी ताकत के कारण आपसे दरें और आप ताकत के दम पर किसी पर अत्याचार ना करें।  चरण महिमा, ढाई आखर प्रेम का, राम तेरी गंगा मैली, समय जात नहीं लागई बारा,राम के अस्तित्व पर सवाल, अनुत्तरित प्रशन, रामहि केवल प्रेम पिआरा, भारतीय संत काव्य, पतन का आधार अहंकार, सांगत का प्रभाव, सहनशीलता एवं सहिष्णुता निबंधों की पृष्ठ भूमि अध्यात्म, सामाजिक सरोकार, तथा धर्म आधारित ही है।  छोटे--छोटे निबंधों के माध्यम से विषय व धर्म के मर्म को समझाते हुए शास्त्रानुसार समाज हितार्थ गमन का मार्ग प्रशस्त करने का सार्थक प्रयास किया है डॉ मिश्र ने अपने इन आलेखों में।

साहित्य की पड़ताल करते निबंधों -साहित्य और साहित्य्कार के तीन रूप, बाल साहित्य की विकास यात्रा, ललित कला और आनदानुभूति, डॉ हरिवंश राय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर, बाज़ार वाद का साहित्य पर प्रभाव,  बच्चन और उम्र खय्याम, फिल्मों में साहित्य और जीवन तथा हिंदी से सम्बंधित सभी आलेख व भटकती शिक्षा बहकते छात्र -सभी निबंध साहित्य की विकास यात्रा, अवरोध, विरोध एवं समाज पर प्रभाव में रखे जा सकते हैं। जहां तक इनकी उपयोगिता की बात है तो यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि “साहित्य भूतकाल से प्रेरणा लेता, वर्त्तमान को जीवन्त करता,तथा भविष्य के ताने-बाने बुनता हुआ समाज को निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।”
डॉ मिश्रा ने बड़ी कुशलता से सरल शैली में साहित्य को विभिन्न विषयों के अंतर्गत लाकर विषय को स्पष्ट करने का सार्थक प्रयास किया है  बाल साहित्य की विकास यात्रा में  बच्चों के आयु वर्ग के अनुसार साहित्य सृजन की महत्ता की बात बतायी गयी है, तो प्राचीन काल से बाल साहित्य की विकास यात्रा पर भी प्रकाश डाला है।  मुझे लगता है कि प्राचीन काल के बाल साहित्य जिसमे दादा-दादी, नाना-नानी की कहानियां (वाचक परम्परा) बालमन विकास के लिए अधिक प्रभावी थी।  वाचक एवं श्रोता के बीच सीधा संवाद, जिज्ञासा पूर्ती, आत्मिक लगाव एवं हाव-भाव द्वारा भी सम्प्रेषणता उसकी विशेषता थी। इस वाचक परम्परा में सभी शास्त्रों की सारगर्भित कहानियां, व्यक्तिगत अनुभव, भूमि, गगन, वायु, आकाश,व नीर यानि भगवान का पञ्च तत्वों से बना होना, इसकी उपयोगिता एवं इन तत्वों का संरक्षण, संवर्धन शामिल था। कालांतर में इन्ही कहानियों तथा इनके सार तत्वों को लेकर विषयानुसार बाल साहित्य का विकास किया गया।  श्री मराल जी ने बाल साहित्य की प्राचीन से आधुनिक तक की विकास यात्रा पर गहन पड़ताल की है।  किसी भी शोधार्थी के लिए यह आलेख अत्याधिक सहायक हो सकता है।  जहां तक हिंदी की बात है तो एक बात स्पष्ट है कि जिस राष्ट्र के पास अपनी राष्ट्र भाषा नहीं, राष्ट्र के निवासियों में अपनी भाषा के प्रति आदर नहीं है वह राष्ट्र मृत प्रायः है।  वोट बैंक की छदम राजनीति, तुष्टिकरण तथा सत्ता में विराजमान नौकरशाहों द्वारा विदेशी भाषा का अपने स्वार्थों के लिए गुणगान हिंदी को राष्ट्र भाषा पद पर आसीन करने में सबसे बड़ा बाधक है। विचित्र किन्तु कटु सत्य यह भी है कि विश्व समुदाय में हिंदी ही भारत की राष्ट्र भाषा है और सम्पूर्ण विश्व में इसे अत्याधिक आदर भी प्रदान किया जाता है।  हिंदी विश्व भाषा है मगर राष्ट्र भाषा नहीं, यह इसकी विडम्बना ही है।  हिंदी के प्रबल समर्थक, विकास यात्रा में सहयोगी एवं विद्वान श्री गार्गी सरन मिश्र जी ने हिंदी की महत्ता, उपयोगिता एवं विकास यात्रा से सम्बंधित अनेक आलेख इस संग्रह में समाहित किये हैं।  दुनिया के भाषा वैज्ञानिकों के विचार हिंदी की वैज्ञानिकता की पुष्टि करते हैं ततो बाज़ारवाद ने हिंदी के महत्त्व को विश्व बाज़ार उपलब्ध कराया है।  संक्षेप में कहें तो संस्कृत, हिंदी या कहें देवनागरी लिपि ही विश्व की एक मात्र लिपि है जिसमे जन्म के समय बच्चे के रोने से उत्त्पनन धवनि को शब्दों में संजोया गया है यानि यह मौलिकता वाली भाषा है।  हिंदी की विशेषता यह है----
जैसा लिखा वही है पढना  
जो बोली वैसा ही लिखना
नहीं शांत इसमे अक्षर हैं
अमृत सा सुख देती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि हिंदी विश्व की सर्वाधिक सरल एवं वैज्ञानिक आधार वाली भाषा है।  इस बात को डॉ मिश्र ने अपने विभिन्न आलेखों से स्पष्ट भी किया है और अब आवश्यकता है कि हमारे राजनेता छोटे-छोटे स्वार्थों को त्याग कर हिंदी को राष्ट्र भाषा पद पर आसीन करें।

अब दो बात डॉ गार्गी सरन मिश्र “मराल” जी के सम्बन्ध में भी।  डॉ मिश्र शिक्षाविद हैं।  वरिष्ठ साहित्य्कार मिश्रा जी कवि, लेखक,कथाकार, नाटककार, व्यंगकार हैं।  शिक्षा के क्षेत्र में जीवन भर  स्थापित करने वाले मिश्रा जी शिक्षा की वर्त्तमान दशा व दिशा से व्यथित भी हैं।  दरअसल वर्त्तमान दौर में शिक्षा का मापदंड अक्षर ज्ञान के माध्यम से डिग्री प्रदान कर अर्थोपार्जन बन गया है।  ज्ञान प्रदान करने तथा ग्यानी बनने का उद्देश्य दोनों ही धुल-धूसरित हो गए हैं।  मिश्र जी के इससे पूर्व भी 5 निबंध संग्रह आ चुके हैं।  डॉ मराल अनेकों पुस्तकों के प्रणेयता हैं जिनमे नाटक, निबंध संग्रह, शीध ग्रन्थ, काव्य ग्रन्थ, कविता संग्रह, कहानी संग्रह व अन्य भी बहुत कुछ है।  आप मध्य प्रदेश के झी नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत के प्रतिष्ठित वरिष्ठ साहित्य्कार हैं।  4 नवम्बर 1936 को जन्मे डॉ गार्गी सरन जी की लेखनी के साथ साथ उनकी साहित्यिक यात्राएं भी निरंतर चलती रहती हैं। वह लेखक हैं, चिंतक हैं, दार्शनिक व यायावर हैं और इस सबसे अधिक सरल, सहज व विनम्र मानव हैं।  मुझे गर्व है कि उनका सानिध्य तथा आशीर्वाद मुझे निरंतर मिलता रहा है और आज उनकी पुस्तक पर अपनी प्रतिक्रया देने का भी अवसर मिला है।

मेरी प्रभु से प्रार्थना है कि डॉ गार्गी शरण मिश्र मराल निरंतर स्वस्थ रहते हुए नित नया साहित्य सृजन कर समाज को दिशा प्रदान करते रहें तथा अपने आशीर्वाद से मुझे सिंचित भी।




समीक्षक



डॉ अ कीर्तिवर्धन
विद्यालक्ष्मी निकेतन
53-महालक्ष्मी एन्क्लेव, मुज़फ्फरनगर-251001 (उत्तरप्रदेश)
08265821800

पुस्तक-सर्वधर्म समभाव से सर्वधर्म समन्वय तक
पृष्ठ-140,   मूल्य -200 /-

निबंधकार -डॉ गार्गीशरण मिश्र मराल  
1436 -बी, सरस्वती कॉलोनी, चेरीताल वार्ड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)

प्रकाशक-विकास प्रकाशन,
कानपुर (उत्तरप्रदेश)

दिनांक---03-04-2014

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