भौतिक सुख का केंद्र हैं, शहरों के बाज़ार,
गावँ भी करने लगे, अब शहरों से व्यापार।
छोड़ कर पगडंडियाँ और पीपल की छावँ,
गावँ अब ढूँढन लगे, हैं शहर में ठावँ।
दे रहे हैं गालियाँ, सब शहर को रोज,
भाग रहे हैं फिर भी, सब शहर की ओर।
दिखती नहीं गौरी कहीँ, अब घूँघट की ओट,
गावँ में भी दिखने लगा, अब नज़रों में खोट।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
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