श्री प्रेम चंद कोठारी “आनंद” दिनांक-18 -02 -2015
कोठारी फैशन्स
23- आप्पाजीराव लेन,
जे एम क्रॉस रोड
बैंगलोर -560002
आदरणीय कोठारी जी, सादर नमस्कार।
सकारात्मक सोच का यह परिणाम है,
मुश्किलों से जीत जाना मेरा काम है।
डरता नहीं राह की रुकावटों से मैं कभी,
आँधियों में दीप जलाना मेरा काम है।
आपकी सहृदयता से प्रेषित “कुछ कुछ में सब कुछ” यथा समय प्राप्त हो गयी थी।
अध्यात्म की गहराई में गोता लगाकर सार तत्व के मोतियों को सूक्त रूप में माला में पिरोकर जन कल्याण हेतु प्रस्तुत “कुछ कुछ में सब कुछ” अतुलनीय पुस्तक है। सीधी सरल सपाट मगर चिंतन की अनुभूति लिए सूक्त शैली “गागर में सागर” की उक्ति को साकार करती है। इन्हे सूक्ति कहूँ, सूत्र कहूँ अथवा क्षणिका इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और न ही इस विवाद में पड़ने कोई लाभ है। इस पुस्तक की सच्चाई यह है कि इसका मनन कर आत्मसात करने से सम्पूर्ण जीवन को बदला सकता है। नकारात्मक विचारों से मुक्त होकर सकारात्मक दृष्टिकोण, मृत्यु की भयावहता से बाहर निकल उसकी सच्चाई को जानने और समझने का प्रयास, सभ्यता संस्कृति का सार, भौतिक सुखों की और दौड़ से लेकर अध्यात्म की गहराई तक सब कुछ इस “कुछ-कुछ” में समाहित है।
प्रेम चन्द ने तो दिया, शब्दों से आनंद ज्ञान अपार,
कन्हैयालाल ने प्रकाशित करा, किया खूब प्रचार।
श्रद्धा सुमन अर्पित किये, मात-पिता नव शीश,
धर्म- अध्यात्म गंगा बहे, विनत गिडिया परिवार।
विनती मेरी राम से, दे सुख समृद्धि अपार,
ज्यों बंसी की धुन फैलती, “कीर्ति” फैले अपार।
सदा सर्वदा सुखी रहें, गिडिया-कोठारी परिवार,
अध्यात्म सन्देश पढ़, “आनन्द” भरे संसार।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
53 महालक्ष्मी एन्क्लेव
जानसठ रोड, मुज़फ्फरनगर -251001 उत्तरप्रदेश
08265821800
“कुछ- कुछ में सब कुछ” मिला, मिला अध्यात्म का सार,
जीवन की कड़वाहट मिली, मिला मौत का प्यार।
दुःख में सुख को ढूंढता, सुख में दुःख अपार,
जीवन का यही मर्म है, विपरीत आचार- व्यवहार।
अंधे भी सब देखते, बहरे सुनते सार,
प्यार की भाषा सम्मुख, सब कुछ है बेकार।
करते सब उठा- पटक, पाने को संसार,
जाने को इस जगत से, दो गज की दरकार।
जब भी तुम आगे बढ़ो, खुद को लक्ष्य मान,
असीमित खुशियाँ मिलें, जग लगता निस्सार।
सब ध्यान से मिलता अगर, क्यों दौड़ें ग्यानी लोग,
ध्यान लगा सब बैठते, कर दुनिया का तिरस्कार।
सेवा ही सबसे बड़ा, प्रभु भक्ति आधार,
निस्वार्थ सेवा करे, पाएं आनन्द अपार।
“मैं मेरी खोज में” ढूंढन चला बाहर,
भीतर ही सब कुछ मिला, बाहर सब बेकार।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
एक दिवस----
जीवन व मृत्यु में संवाद होने लगा
दोनों में कौन श्रेष्ठ, वाद होने लगा,
बात बढ़ते-बढ़ते विवाद होने लगा
जीवन की हर बात का प्रतिवाद होने लगा |
अंतिम सत्य मृत्यु है, प्रचार होने लगा,
विपरीत वातावरण, जीवन भी निराश होने लगा,
मृत्यु के पक्ष में ही सरोबार होने लगा,
हर आस छोड़कर निढाल हो रोने लगा |
रोते-रोते उसको अचानक, ये ख्याल आ गया
कर्म ही जीवन है, इसका भाव छा गया
निराश भावों को उसने, एक पल में भगा दिया
मृत्यु तो निष्क्रिय है, यह सबको बता दिया |
कर्म केवल जीव करता, जिंदगी की शान है
आत्मा भटकती रहती, मृत्यु के उपरांत है
जीव उसको आश्रय देता, जीवन की पहचान है
जीवन ही सर्व श्रेष्ठ है, सत्कर्म उसकी पहचान है |
डॉ अ कीर्तिवर्धन
8265821800
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