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Sunday, March 22, 2015

vijaatiya prem vivaah tathaa kuprathaaon se mukti

विजातीय प्रेम विवाह, भारतीय युवतियों के लिए परम्परागत कुप्रथाओं से मुक्ति है अथवा ससुराल पक्ष की सामाजिक मान्यताओं के दबाव से उत्तपन्न बढ़ते मानसिक तनाव का हेतु ---------------------------------------

विजातीय प्रेम विवाह कोई नयी व्यवस्था नहीं है जिस पर इतना हो- हल्ला मचाया जाए। प्राचीन काल से ही विजातीय विवाह का उल्लेख हमारे शास्त्रों में पाया जाता है।  गोस्वामी तुलसी दास जी ने लिखा था “समरथ को नहीं दोष गुसाईं,“ यह उक्ति वैदिक काल मे भी शाश्वत थी और आज भी पूर्ण प्रासांगिक है। रामायण काल में महाराजा दशरथ की तीसरी पटरानी केकैयी, भगवान श्री कृष्ण की पटरानी रुकमणि, महाराज दुष्यंत--शकुन्तला, महाराज शांतनु---- गंगा तथा अनेकोनेक देशी विदेशी विजातीय प्रेम विवाह के किस्से हमारी धरोहर में संरक्षित हैं।
समाज व परिवार के सुचारू संचालन के लिए कुछ नियमों का निर्धारण किया जाता है जिन्हे समयावधि में प्रथाएं भी कहा जाता है। यह तो संभव है कि कुछ नियम या प्रथाएं किसी व्यक्ति अथवा समाज के अनुकूल न हों, लेकिन उन्हें कुप्रथा नहीं कहा जा सकता। कुछ नियम -प्रथाएं समय या कहें काल खंड प्रधान होती हैं जैसे मुग़ल काल की (हिन्दू समाज की बहु बेटियों को बचाने के लिए) पर्दा प्रथा, बहु- बेटियों के घर से बाहर निकलने पर प्रतिबन्ध परिणामतः शिक्षा का अभाव।  यह तात्कालिक हालात के कारण उत्पन्न समस्या थी जो कालांतर में प्रथा बनी। यद्यपि वर्तमान में भी इसका महत्त्व बना हुआ है। अक्सर देखने में आता है कि कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी केवल शाब्दिक ज्ञान के आधार पर ही परम्परागत प्रथाओं को कुप्रथा कह कर उनके बहिष्कार की बात करते हैं। इस सोच को बढ़ावा दिया वामपंथी विचारकों ने जिनका उद्देश्य भारत की संस्कृति पर प्रहार करना मात्र रहा। आज पाश्चात्य विद्वानो का भी मानना है कि भारतीय पौराणिक ज्ञान पूर्णतया वैज्ञानिक कसौटी पर खरा परखा ज्ञान है। यह भारतीय मनीषियों की बुद्धि चातुर्य का ही कमाल है कि उन्होंने अपने लाखों वर्ष पूर्व की प्रथाओं को धर्म से जोड़कर जीवित रखा है। कालांतर में शिक्षा को धर्म- संस्कृति तथा प्रथाओं से जोड़कर जन मानस में प्रचारित- प्रसारित तथा स्थापित किया गया। यही ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ता हुआ समाज के अंतिम छोर तक आज भी मौजूद है।
प्रथाएं भी देश -काल व परिस्थिति के अनुसार अलग अलग रही हैं। मेघालय में स्त्री प्रधान समाज की अवधारणा एक जाति विशेष में पायी जाती है।  वहां घर  मालकिन भी स्त्री है और विवाह उपरान्त लड़का ही विदा होकर लड़की के घर जाता है। वहाँ पर लडके का अपने पिता अथवा ससुराल में किसी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता। जबकि अधिकतर भारत में लड़की ही विदा होकर लडके के आती है। इसी प्रकार हमने स्वयं देखा कि द्वारका (गुजरात) में एक लड़की घोड़े पर सवार होकर अपनी बरात लेकर विवाह मंडप में जाने की प्रथा है। उत्तराखंड मसूरी के आसपास के गाँव में संतान होने पर कुछ पौधे लगाकर उनका पालन पोषण की प्रथा है जिसे “पदालना” कहते हैं। पीपल वृक्ष पर देवता अथवा भूत-प्रेत की अवधारणा तथा पीपल की पूजा प्रथा को कुछ पढ़े लिखे लोग भले ही अंधविश्वास कहें अथवा कुप्रथा वस्तुतः यह चौबीस घंटे प्राण वायु देने वाले पीपल की सुरक्षा- संरक्षा का आधार है।
यह सब बातें लिखने का तातपर्य केवल इतना ही है कि कोई भी कुप्रथा नहीं होती सब प्रथाएं ही होती हैं। कुछ प्रथाएं काल विशेष में उचित थी मगर आज प्रासांगिक नहीं हैं तो उन पर विचार अवश्य किया जाए। यदि आवश्यक लगे तो उसमे कुछ सुधार किया जाए मगर कुप्रथा न कहा जाए। जब कुप्रथा नहीं होगी तब उससे मुक्ति की बात भी नहीं होगी।
विजातीय प्रेम विवाह और कुप्रथा से जुड़ा एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है दहेज़ समस्या का। दहेज़ समस्या को समाज में विकराल रूप में प्रस्तुत किया जाता है। समाज में अनेक जातियों में दहेज़ के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। कुछ जगह वर पक्ष द्वारा कन्या पक्ष को दहेज़ दिया जाता है। वस्तुतः हमारे शास्त्रों में कन्या पक्ष द्वारा अपनी पुत्री को उपहार में दिए जाने वाला सामान ही दहेज़ कहलाता है। कुछ अपवाद की तो बात नहीं करते अन्यथा आज कन्या पक्ष वाला  झूठी शान ओ शौकत के लिए भी अथाह धन का दुरूपयोग करता। है। इतना ही नहीं आज की बेटियाँ भी अपने झूठे दम्भ के लिए शादी के समय पिता के बजट से अधिक खर्च करने में अपनी शान समझती हैं। पिता द्वारा दहेज़ में दी जाने वाली सभी वस्तुओं को सर्वोत्तम के आधार पर खरीदना, अधिक से अधिक जेवर- कपडे की लालसा भी किसी से छुपी नहीं है। वर्तमान समय में दहेज़ प्रथा का रोना रोने वाले माँ- बाप व लड़की किसी योग्य मगर गरीब लडके से और न ही किसी आदर्श परिवार में जो दहेज़ बिना शादी करना चाहता हो, शादी नहीं करना चाहते। हाँ दहेज़ प्रथा के लिए समाज को कोसने का काम निरंतर करते रहेंगे।
विजातीय विवाह किसी समस्या का समाधान तब तक नहीं है जब तक आप नियमों, व्यवस्थाओं तथा प्रथाओं का पालन अथवा उनके साथ सामंजस्य बैठाना नहीं सीख लेते। अधिकतर देखने में यह आता है कि विजातीय विवाह शारीरिक आकर्षण, क्षणिक आवेश अथवा आर्थिक सम्पन्नता के आधार पर होते हैं। व्यवहारिक धरातल पर आते आते टकराव व अलगाव अधिकाँश की परिणीति समाज में देखी जा सकती है। विजातीय विवाह के उपरान्त भी तो उस घर की प्रथाएं सम्मुख हैं जिस घर में शादी के पश्चात जुड़ना है। हमारा मानना है कि जब तक हम संस्कृति, सभ्यता, संस्कार तथा प्रथाओं के साथ ताल-मेल स्थापित नहीं करेंगे, परिवार व समाज के साथ सामंजस्य नहीं बैठाएंगे, समाज के प्रचलित नियमों की अनदेखी करेंगे तथा अपनी प्रथाओं का सम्मान नहीं करेंगे तब तक किसी भी समस्या का हल नहीं निकल सकता। हमारी दोहरी मानसिकता “हमारी बेटी बिना दहेज़ किसी ऐसे परिवार में जाए जहाँ उसका राज चल सके और हमारी बहु ऐसी हो जो सारे परिवार को साथ लेकर चले साथ में दहेज़ लेकर आये और सास के दिशा निर्देश पर चले, “ जब तक बनी रहेगी तब तक किसी समस्या का हल नहीं निकल सकता। अगर समाज को लगता है कि कोई प्रथा हमारी परिस्थिति के अनुकूल नहीं है तो उस पर टकराव नहीं अपितु समाधान का मार्ग निकाला जा सकता है। जैसा पूर्व में भी उल्लेख किया गया है कि नियमों तथा प्रथाओं का सम्मान तथा अनुशरण करने से ही समाज बनता है। स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु प्रथाओं की समीक्षा कर परिवर्तन किया जा सकता है लेकिन उन्हें कुप्रथा कहना कदापि उचित नहीं है। जिस दिन आज की युवतियाँ इस तथ्य से परिचित हो जाएंगी उसी दिन ससुराल पक्ष की मान्याताओं से पैदा होने वाले तनाव से भी मुक्त हो जाएंगी।

डॉ अ कीर्तिवर्धन
विद्यालक्ष्मी निकेतन,
53-महालक्ष्मी एन्क्लेव
मुज़फ्फरनगर -251001 उत्तर-प्रदेश
08265821800   

 

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